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५७० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अलङ्कारत्व स्वीकार कर उसे परिभाषित किया है। रुद्रट ने परिकर को परिभाषित करते हुए कहा था कि जहां वस्तु को विशेष अभिप्राय से युक्त विशेषणों से विशेषित किया जाय, वहाँ परिकर अलङ्कार होता है। वस्तु के चार भेद-द्रव्य, गुण, क्रिया तथा जाति के आधार पर परिकर के चार भेद होते हैं।' अभिप्राय यह कि द्रव्य-रूप वस्तु के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग परिकर का एक भेद, गुण-रूप वस्तु के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग उसका दूसरा भेद, क्रिया-रूप वस्तु के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग उसका तीसरा तथा क्रिया-रूप वस्तु के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग उसका चौथा भेद है। द्रव्य आदि के आधार पर परिकर का निरूपण बाह्य और स्थूल है। रुद्रट की परिभाषा का निष्कर्षार्थ है-वस्तु के साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग परिकर का लक्षण है।
कुन्तक ने परिकर को स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में तो स्वीकार नहीं किया पर विशेषण-वक्रता पर विस्तार से विचार किया है। उनके अनुसार जहाँ विशेषण के माहात्म्य से क्रिया या कारक का लावण्य प्रस्फुटित हो, वहाँ विशेषण की वक्रता मानी जाती है। उन्होंने प्रस्तुतौचित्य के अनुसार इस विशेषणवक्रता को समग्र उत्तम काव्य का प्राण कहा है। परिकर में साभिप्राय विशेषण के प्रयोग पर रुद्रट तथा परवर्ती आचार्यों ने जो विचार किया है, उससे कुन्तक की विशेषण-वक्रता की धारणा बहुत कुछ मिलती-जुलती है। हाँ,, कुन्तक उसे एक अलङ्कार नहीं मान कर उत्तम काव्य का प्राणभूत तत्त्व मानेंगे, क्योंकि विशेषणों का वक्रतापूर्ण प्रयोग क्रिया तथा कारक का लावण्य प्रकट करता है।
भोज ने विस्तार के साथ परिकर का सभेद निरूपण किया है। इस
१. साभिप्रायः सम्यग्विशेषणर्वस्तु यद्विशिष्येत । द्रव्यादिभेदभिन्नं चतुर्विधः परिकरः स इति ॥
–रुद्रट, काव्यालङ्कार ७, ७२' २. विशेषणस्य माहात्म्यात् क्रियायाः कारकस्य वा। यत्रोल्लसति लावण्यं सा विशेषणवक्रता ॥
-कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, २, १५ ३. एतदेव विशेषणवक्रत्वं नाम प्रस्तुतौचित्यानुसारि सकलसत्काव्यजीवितत्वेन लक्ष्यते।
-वही, वृत्ति, पृ० २३६: