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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ४६५ दण्डी ने दिया है, उसमें अप्रस्तुत की स्तुति का पर्यवसान प्रस्तुत की निन्दा में होता है। इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दण्डी अप्रस्तुत की स्तुति से प्रस्तुत की निन्दा की प्रतीति में अप्रस्तुतप्रशंसा का सद्भाव मानते थे। 'प्रशंसा का 'वर्णन' अर्थ (जो भामह ने माना था) छोड़ कर 'स्तुति' अर्थ मानना अकारण नहीं था। दण्डी अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत की व्यञ्जना समासोक्ति का लक्षण मानते थे। अतः, यह आवश्यक था कि वे समासोक्ति से अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वतन्त्र स्वरूप के प्रतिपादन के लिए अप्रस्तुत के वर्णन के स्थान पर अन्य अर्थ की कल्पना करते । अप्रस्तुतप्रशंसा के नाम में ही उन्हें अन्यार्थकल्पना का सूत्र मिल गया और प्रशंसा का वर्णन' की अपेक्षा अधिक प्रचलित अर्थ 'स्तुति' मानकर उन्होंने प्रस्तुत अलङ्कार का स्वरूप-निरूपण किया। परवर्ती काल में दण्डी की यह मान्यता विशेष समर्थन नहीं पा सकी। दण्डी की अप्रस्तुतप्रशंसा-परिभाषा भामह की परिभाषा से आपाततः अभिन्न जान पड़ती है, पर उसके स्वरूप के सम्बन्ध में दण्डी की मान्यता भामह की मान्यता से तत्त्वतः किञ्चित् भिन्न है। आचार्य उद्भट ने भामह के अप्रस्तुतप्रशंसा-लक्षण को ही कुछ परिवर्तन के साथ प्रस्तुत किया है । उस परिवर्तन से उद्भट की परिभाषा अधिक स्पष्ट हो पायी है। उन्होंने भामह की तरह अप्राकरणिक का वर्णन अप्रस्तुतप्रशंसा में वाञ्छनीय माना। इसे 'प्रस्तुतार्थनिबन्धिनी' कह कर प्रस्तुत की प्रतीति के तत्त्व को उन्होंने स्पष्टतया उल्लिखित किया है।' __ वामन ने भी अप्रस्तुत की उक्ति से प्रस्तुत अर्थ का बोध ही अप्रस्तुतप्रशंसा का लक्षण माना है । वे भामह तथा उद्भट की तरह प्रशंसा का अर्थ वर्णन या कथन ही मानते हैं । ध्यातव्य है कि अप्रस्तुत की उक्ति से प्रस्तुत की व्यञ्जना में वामन समासोक्ति मानते हैं। अप्रस्तुतप्रशंसा का समासोक्ति से भेद उन्होंने केवल इस आधार पर किया है कि समासोक्ति में उपमेय सर्वथा अनुक्त रहता है, जबकि अप्रस्तुतप्रशंसा में वह किञ्चित् उक्त अर्थात् लिङ्ग-मात्र से कथित होता है। १. अधिकारादपेतस्य वस्तुनोऽन्यस्य या स्तुतिः । अप्रस्तुतप्रशंसेयं प्रस्तुतार्थनिबन्धिनी ॥ -उद्भट, काव्यालं० सारसं० ५, १४ २. उपमेयस्य किञ्चिल्लिङ्गमात्रेणोक्तौ समानवस्तुन्यासे अप्रस्तुतप्रशंसा । -वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, ४, की वृत्ति पृ० २२६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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