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________________ ७२० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण काव्यलिङ्ग में ही हेतु को अन्तभुक्त मान लिया था; किन्तु जयदेव-अप्पय्य दीक्षित आदि के अनुसार दोनों एक दूसरे से अपना-अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हैं। दोनों में भेद यह है कि जहाँ काव्यलिङ्ग में हेतु का उपस्थापन वाक्यार्थ या पदार्थ के रूप में होता है, वहां हेतु में हेतुमान् के साथ हेतु का वर्णन आवश्यक माना जाता है। हेतुमान् और हेतु का साथ-साथ कथन हेतु. अलङ्कार का तथा हेतु का वाक्यार्थ अथवा पदार्थ-रूप में उपस्थापन, काव्यलिङ्ग का व्यावर्तक धर्म है। सन्देह और भ्रान्तिमान् ___ इन दोनों अलङ्कारों का स्वरूप दो प्रकार के ज्ञान की धारणा पर आधृत है। सन्देह में किसी वस्तु में अन्य वस्तु का अनिश्चयात्मक ज्ञान होता है। यह ज्ञान _कोटिक होता है; क्योंकि प्रमाता के मन में उस प्रकृत का तथा सादृश्य के कारण अप्रकृत का अनिश्चयात्मक ज्ञान होता रहता है। उसका मन दो वस्तुओं के ज्ञान में दोलाचल स्थिति में रहता है। भ्रम में किसी वस्तु में उससे भिन्न; किन्तु उसके सदृश अन्य वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान होता है। अतः, भ्रम-दशा में असत्य; किन्तु एककोटिक ज्ञान होता है। इस प्रकार ज्ञान का एककोटिक या निश्चयात्मक होना भ्रान्तिमान् का तथा ज्ञान का _कोटिक या अनिश्चयात्मक होना सन्देह का व्यावर्तक है । पण्डितराज ने अपने भ्रान्तिमान्लक्षण में 'निश्चय' शब्द के उल्लेख की सार्थकता अनिश्चयात्मक ज्ञान पर आश्रित सन्देह से उसके भेद-निरूपण में ही मानी है ।२ सन्देह और वितर्क अनेक आचार्यों ने तो वितर्क का सन्देह के ही स्वरूप में अन्तर्भाव मानकर केवल सन्देह का ही निरूपण किया था; पर पीछे चलकर कुछ आचार्यों ने वितर्क को सन्देह से स्वतन्त्र अलङ्कार मान लिया । वस्तुतः, सन्देह और वितर्क में थोड़ा अन्तर है। सन्देह अनिश्चयात्मक ज्ञान है तो वितर्क यथार्थ ज्ञान का साधन । सन्देह के स्थल में वितर्क से निश्चयात्मक यथार्थ ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। अतः, जहाँ प्रमाता सन्देह होने पर वितर्क से बस्तु के यथार्थ १. अयं काव्यलिङ्गालङ्कार एव हेत्वलङ्कार इत्युच्यते । -काव्यप्रकाश, झलकीकर की र्टीका, पृ० ६७७) २. .."संशयवारणाय निश्चय इति ।-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ०. ४२१.
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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