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अलङ्कार-धारणा का विकास
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चित्र
रुद्रट ने चित्र-नामक स्वतन्त्र शब्दालङ्कार की कल्पना की है। इसमें चक्र, मुरज आदि चित्रों में वर्गों का विन्यास होता है। इस अलङ्कार का अभिधान-मात्र नवीन है । दण्डी ने यमक के विवेचन-क्रम में मुरज-बन्ध आदि के रूप में शब्दयोजना की प्रक्रिया पर भी विचार किया था। रुद्रट ने चित्र को स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उसके चक्र, खङ्ग, मुसल, वाण आदि बन्ध-भेदों की भी कल्पमा कर ली है। चित्र अलङ्कार-विषयक मूल धारणा दण्डी से ही ली गयी है।'
समुच्चय
वास्तव अलङ्कार-वर्ग के समुच्चय के लक्षण में रुद्रट ने यह मान्यता प्रकट की है कि जहाँ एक आधार में अनेक वस्तुओं का सद्भाव वर्णित हो वहाँ ‘समुच्चय अलङ्कार होता है। एक अधिकरण में दो सुन्दर. दो असुन्दर तथा एक सुन्दर और एक बसुन्दर वस्तु के सद्भाव के आधार पर उसके तीन भेद स्वीकार किये गये हैं ।२ रुद्रट के पूर्ववर्ती किसी आचार्य ने एक आधार में अनेक आधेय की युगपत् स्थिति के वर्णन में अलङ्कारत्व की कल्पना नहीं की थी। यह रुद्रट की मौलिक उद्भावना है।
भाव
रुद्रट के भाव अवतार का सम्बन्ध हृद्गत भाव की व्यञ्जना से है। हृदय के भाव को प्रतिक्रिया चेहरे पर भी स्पष्ट हो जाया करती है। विभिन्न भावों के बाह्य विकार स्पष्ट ही दिखाई पड़ जाते हैं। वे विकार भाव के कार्य होते हैं। उस कार्य को देख कर कारण का अनुमान भावक को हो जाता है। चेष्टा से भाव के अभिव्यञ्जन का यही रहस्य है। रुद्रट की मान्यता है कि जहाँ किसी अधिकरण में अनैकान्तिक हेतु से उत्पन्न होने वाला विकार भावक को अपने आधारभूत पात्र के हृद्गत भाव का बोध करा देता है तथा वही विकार अपने तथा अपने हेतु के बीच कार्यकारण-भाव की भी व्यञ्जना
१. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं०५, १-४ तथा दण्डी काव्यद० ३, ७८-८२ २. यत्र कत्राने वस्तु परं स्यात्सुखावहाद्य । ज्ञेयः समुच्चयोऽसौ त्रेधान्यः सदसतो-गः । रुद्रट, काव्यालं. ७, १६