SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 161
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण करता है, वहाँ भाव नामक अलङ्कार होता है।' अनेक कारणों से एक-से विकार का होना सम्भव है; किन्तु भाव में विकार के यथार्थ कारण का बोध भी प्रमाता को हो जाता है। विकार को देख कर भाव के अवगम की धारणा नवीन नहीं है। भरत ने प्राप्ति नाट्यलक्षण में इससे मिलती-जुलती धारणा ही व्यक्त की है। उन्होंने किसी अवयव को देखते ही भाव का अनुमान-गम्य हो जाने में प्राप्ति लक्षण माना था।२ रुद्रट ने उसी लक्षण के आधार पर भाव अलङ्कार के इस स्वरूप की कल्पना कर ली। रुद्रट ने भाव के दूसरे प्रकार की कल्पना कर यह माना है कि वाच्य की उक्ति से वक्ता के अभिप्रायरूप वाच्य-भिन्न अर्थ के बोध होने में भी भाव अलङ्कार होता है । 3 वाच्यअर्थ से अर्थान्तर के गम्य होने की धारणा से भी भरत आदि प्राचीन आचार्य परिचित थे। शब्द की मुख्य वृत्ति (अभिधा) के अतिरिक्त अन्य शब्दशक्तियों से भी भारतीय मनीषा रुद्रट के बहुत पूर्व से ही परिचित थी। भामह ने शब्द की मुख्य वृत्ति के अतिरिक्त अन्य शक्तियों के सम्बन्ध में बौद्ध आदि के मत का उल्लेख किया है। अतः भाव के इस दूसरे स्वरूप की कल्पना भी सर्वथा नवीन नहीं है। उसे अलङ्कार के रूप में स्वीकार करने-मात्र में रुद्रट के विचार की नवीनता है। भाव के प्रथम रूप के उदाहरण को मम्मट आदि आचार्यों ने गुणीभूत व्यङ्ग य तथा द्वितीय रूप के उदाहरण को ध्वनि का उदाहरण माना है। ध्वनि तथा गुणीभूत व्यङ्गय में अन्तर्भूत होने के कारण उसका अलङ्कारत्व स्वीकृत नहीं हुआ। पर्याय प्राचीन आचार्यों के पर्यायोक्त को ही रुद्रट ने पर्याय संज्ञा से अभिहित किया है । वे भामह आदि की तरह भङ्ग यन्तर से अभिधान में पर्याय अलङ्कार, १. यस्य विकारः प्रभवन्नप्रतिबद्धन हेतुना येन । गमयति तदभिप्रायं तत्प्रतिबन्धं च भावोऽसौ ॥ –रुद्रट, काव्यालं० ७, ३८ २. दृष्ट्वैवावयवं किञ्चिद्भावो यत्रानुमीयते।। प्राप्तिं तामभिजानीयाल्लक्षणं नाटकाश्रयम् ।। -भरत, ना० शा०, १६, ३२ ३. अभिधेयमभिदधानं तदेव तदसदृशसकलगुणदोषम् । अर्थान्तरमवगमयति यद्वाक्यं सोऽपरो भावः ।। -रुद्रट, काव्यालं०, ७, ४०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy