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________________ ३७४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण भाविक, उदात्त, संसृष्टि, सङ्कर, रसवत्, प्रय, ऊर्जस्वी तथा समाहित आदि अलङ्कारों का सद्भाव स्वीकार कर भी रुय्यक ने उनके वर्ग की कल्पना नहीं की है। संसृष्टि और सङ्कर के वर्ग की कल्पना तो आवश्यक भी नहीं थी। कारण, उन्हें तत्तद्वर्ग के अलङ्कारों से स्वतन्त्र अस्तित्व वाला माना ही नहीं जा सकता। उनमें कोई स्वतन्त्र मूलतत्त्व नहीं। अन्य अलङ्कार ही अपने-अपने मूल तत्त्वों के साथ संसृष्टि एवं सङ्कर में सङ्कीर्ण रूप से रह सकते हैं। अतः आश्रय के आधार पर किये जाने वाले वर्गीकरण में ही इन दोनों का समाहार सम्भव है। रुय्यक ने इसीलिए मूल-तत्त्व पर आधृत किसी वर्ग में सङ्कर और संसृष्टि को स्थान नहीं दिया है। रस, भाव आदि पर आश्रित रसवदादि अलङ्कारों (रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वी, समाहित, भावोदय, भावसन्धि, भावशबलता) को एक पृथक् 'रसभावमूलक अलङ्कार-वर्ग' में वर्गीकृत किया जा सकता था। किन्तु, रुय्यक ने उन अलङ्कारों के वर्ग की कल्पना आवश्यक नहीं समझी। रस, भाव आदि के विवेचन-क्रम में रसवत् आदि के स्वरूप पर विचार हो रहा था; पर जब रस, भाव आदि की कल्पना (स्थितिविशेष में) रसवत् आदि अलङ्कारों के रूप में की गयी, तो उन्हें वर्गीकृत करने के लिए एक स्वतन्त्र वर्ग की कल्पना तो की ही जानी चाहिए। रुद्रट के वास्तव-वर्ग को अस्वीकृत करने के पूर्वाग्रह से भी रुय्यक के वर्गीकरण में थोड़ी त्रुटि रह गयी है। स्वभावोक्ति को जब रुय्यक ने अलङ्कार के रूप में स्वीकृति दी, तब अलङ्कार के वास्तव-वर्ग को अस्वीकार करने में कोई औचित्य नहीं। स्वभावोक्ति का मूलतत्त्व है वस्तु-स्वरूप-वर्णन। अतः, वह वास्तव-वर्ग का अलङ्कार है। भाविक और उदात्त में भी वस्तु-वर्णन की प्रधानता रहती है। अतः, वास्तव-वर्ग को स्वीकार करने से उदात्त तथा भाविक के वर्गीकरण की समस्या का भी समाधान हो जाता। ___ आचार्य रुय्यक ने अलङ्कार के कुछ मूलतत्त्वों को ढूढ़ कर उनके आधार पर नवीन दृष्टि से अलङ्कारों के वर्गीकरण का महत्त्वपूर्ण प्रयास अवश्य किया है; पर उनका वर्गीकरण भी सर्वथा पूर्ण तथा निर्दोष नहीं हो पाया। स्वभावोक्ति आदि का अवर्गीकृत रह जाना उनके वर्गीकरण-सिद्धान्त की अव्याप्ति का तथा अतिशयोक्ति को दो वर्गों में रखना उस सिद्धान्त की अशक्ति का द्योतक है। रुद्रट के द्वारा कल्पित वास्तव-वर्ग की उपेक्षा अकारण है। इस सीमा के होने पर भी सादृश्य के भेदाभेदप्रधान, अभेदप्रधान तथा गम्यमानौपम्य भेदों की कल्पना और विरोध, शृङ्खला, न्याय तथा गूढार्थप्रतीति-जैसे
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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