________________
अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ५५७. दण्डी की दृष्टि में भामह की परिवृत्ति का उदाहरण रहा होगा। सम्भव है, इसीलिए उन्होंने न्यून देकर अधिक के ग्रहण का उदाहरण दे दिया हो। दण्डी के उस उदाहरण को देखकर यह नहीं माना जाना चाहिए कि दण्डी भी भामह की तरह केवल न्यून से अधिक के विनिमय में ही परिवृत्ति मानते थे। दण्डी ने स्वयं यह कहा है कि परिवृत्ति के किञ्चित् रूप का ही उदाहरण दिया जा रहा है। स्पष्टतः, उदाहृत रूप के अतिरिक्त अन्य रूपों की भी कल्पना दण्डी के मन में थी; पर उन्होंने सब को उदाहृत करना आवश्यक नहीं समझा।
उद्भट ने परिवृत्ति में अर्थों के विनिमय की मूल धारणा को ही स्वीकार किया; पर उन्होंने स्पष्टीकरण के लिए विनिमय के तीनों सम्भव रूपों का परिभाषा में उल्लेख करते हुए कहा कि सम, न्यून तथा विशिष्ट से किसी वस्तु का परिवर्तन, जो अर्थस्वभाव तथा अनर्थस्वभाव का होता है, परिवृत्ति है। न्यून देकर अधिक का आदान अर्थस्वभाव, अधिक देकर न्यून का ग्रहण अनर्थस्वभाव तथा सम से सम का विनिमय प्रसज्यप्रतिषेधरूप अर्थाभाव रूप है। इन तीनों स्थितियों में परिवृत्ति मानी जाती है । ' स्पष्ट है कि दण्डी की परिवत्ति-परिभाषा को ही कुछ परिष्कृत रूप में उद्भट ने प्रस्तुत किया है। __ आचार्य वामन का कहना है कि कुछ लोग उपमेयोपमा को ही परिवृत्ति मान लेते हैं, जो उचित नहीं । समान अथवा असमान अर्थ से अर्थ का परिवर्तन परिवृत्ति का लक्षण है।२ विसदृश के विनिमय में न्यून से अधिक तथा अधिक से न्यून; दोनों के परिवर्तन की धारणा निहित है। स्पष्ट है कि वामन ने दण्डी, उद्भट आदि की ही परिवृत्ति-धारणा को स्वीकार किया है। वामन सभी अलङ्कारों को उपमा-प्रपञ्च मानते हैं; पर परिवृत्ति में अर्थ-परिवर्तन में सार्वत्रिक रूप से उपमानोपमेय भाव नहीं दिखाया जा सकता। उनकी परिवृत्ति-धारणा अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी मूल धारणा पर ऐसा प्रश्न चिह्न छोड़ जाती है, जिसका कोई युक्तिसङ्गत उत्तर नहीं।
१. समन्यूनविशिष्टस्तु कस्यचित् परिवर्तनम् । अर्थानर्थस्वभावं यत् परिवृत्तिरभाणि सा॥ -उद्भट, काव्यालं. सारसं० ५,३१ । उसपर तिलक की विवृति भी
द्रष्टव्य, पृ० ४८ .. २. समविसदृशाभ्यां परिवर्तन परिवृत्तिः।
-वामन, काव्यालं० स० ४,३,१६.