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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १४३ अलङ्कार के दो भेद स्वीकृत हैं। प्रथम भेद का स्वरूप अनुमान से कुछ मिलताजुलता है। अनुमान की तरह इसमें भी उत्तर-वाक्य से प्रश्न-वाक्य अनुमित हो जाता है। दोनों में भेद केवल इतना है कि जहाँ अनुमान में हेतुहेतुमद्भाव की सिद्धि अपेक्षित होती है वहाँ उत्तर में केवल प्रश्न का अनुमान होता है। इसमें कार्यकारण भाव की सिद्धि नहीं होती। उत्तर के दूसरे प्रकार में प्रश्न में ही उत्तर की प्रतीति वाञ्छनीय मानी गयी है । उत्तर के इस भेद का स्वरूप भरत के पृच्छा संज्ञक लक्षण के स्वरूप से मिलता-जुलता है। पृच्छा में प्रश्न ही उत्तर का ज्ञापक होता है । ' अभिनव गुप्त ने पृच्छा लक्षण की परिभाषा की व्याख्या करते हुए लिखा है कि इसमें प्रश्न के उत्तर की अपेक्षा नहीं होती, चूंकि प्रश्न ही उत्तर की प्रतीति करा देते हैं ।२ स्पष्ट है कि पृच्छा लक्षण के तत्त्वों से ही रुद्रट के उत्तर के उक्त स्वरूप का निर्माण हुआ है। सार सार अलङ्कार में एक समुदाय की वस्तुओं में एक अङ्ग से दूसरे अङ्ग का क्रमशः गुणोत्कर्ष वर्णित होता है। इसमें प्रत्येक पूर्ववर्ती पदार्थ से उत्तरवर्ती पदार्थ उत्कृष्ट माना जाता है। इस प्रकार किसी वस्तु के उत्तरोत्तर उत्कर्षशाली अङ्गों का क्रमबद्ध उपस्थापन सार में अपेक्षित माना गया है। प्रत्येक पूर्ववर्ती से अधिकाधिक गुणवान् वस्तुओं की शृङ्खला इसमें रहा करती है। वस्तुविनिवेश की शृङ्खला कारणमाला की तरह इसमें भी रहती है; किन्तु इसका कारणमाला से यह भेद है कि इसमें पूर्ववर्ती पदार्थ का परवर्ती पदार्थ से हेतुहेतुमद्भाव-सम्बन्ध नहीं रहता; इसमें पूर्ववर्ती तथा परवर्ती पदार्थों में गुणों के न्यूनाधिक्य-मात्र का विचार अपेक्षित माना गया है। प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप की उद्भावना का श्रेय भी रुद्रट को ही है। अवसर न्यून वस्तु के उत्कर्ष-साधन के लिए जहाँ उदात्त या सरस वस्तु को उस न्यून वस्तु के उपलक्षण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, वहाँ अवसर १. यत्राकारोद्भवैर्वाक्यरात्मानमथवा परम् । __ पृच्छन्निवाभिधत्त ऽर्थं सा पृच्छेत्यभिसंज्ञिता ॥-वही, १६,३४ २. पृच्छा.. पृच्छन्निवाभिधानम् । तन्नोत्तरमपेक्षते तस्यैव प्रत्यायकत्वात् । -अभिनव, ना० शा० अ० भा० पृ० ३६१ ३. यत्र यथासमुदायाद्यथैकदेशं क्रमेण गुणवदिति । निर्धार्यते यथावधि निरतिशयं तद्भवेत्सारम् ।।-रुद्रट, काव्यालं०७,९६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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