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अलङ्कार-धारणा का विकास
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(१८) ससन्देह, (१६) अपह्न ुति, (२०) परावृत्ति, (२१) अनुमान, (२२) स्मृति, (२३) भ्रान्ति, (२४) विषम, (२५) सम, (२६) समुच्चय, ( २७ ) परिसंख्या. (२८) कारणमाला तथा (२६) सङ्कर ।
अनुप्रास की सामान्य धारणा मम्मट से अभिन्न है । हेमचन्द्र ने यद्यपि छेकानुप्रास तथा वृत्यनुप्रास; इन दो अनुप्रास भेदों का मम्मट की तरह नाम्ना निर्देश नहीं किया है तथापि उक्त भेदों की स्वीकृति स्पष्ट है । उन्होंने एक की असकृत् आवृत्ति तथा अनेक की सकृत् और असकृत् आवृत्ति के उदाहरण दिये हैं । मम्मट ने एक या अनेक व्यञ्जन की असकृदावृत्ति को वृत्यनुप्रास तथा अनेक व्यञ्जन की सकृत् अर्थात् एक वार आवृत्ति को छेकानुप्रास नाम से अभिहित किया था । तात्पर्य भेदसे समानार्थक पद की आवृत्ति में मम्मट के मतानुसार हेमचन्द्र ने भी लाटानुप्रास अलङ्कार माना है । हेमचन्द्र लाटानुप्रास की गणना अनुप्रास से पृथक् करना समीचीन नहीं समझते । वे उसे अनुप्रास का ही भेद मानते हैं । अनुप्रास के वर्णावृत्ति या व्यञ्जनावृत्ति-लक्षण की व्याप्तिपदावृत्ति रूप लाटानुप्रास में नहीं होने के कारण ही कुछ आचार्यों को लाटानुप्रास का अनुप्रास से स्वतन्त्र रूप से उल्लेख करने की आवश्यकता जान पड़ी होगी । वस्तुतः छेक, वृत्ति आदि की तरह लाट को भी अनुप्रास का भेदमात्र ही स्वीकार करना चाहिए । अनुप्रास का सामान्य लक्षण इतना व्यापक होना चाहिए कि लाटानुप्रास के स्वरूप में उसका व्यभिचार नहीं हो । अस्तु, यहाँ इतना ही निर्देश अभीष्ट है कि हेमचन्द्र की अनुप्रास-धारणा मम्मट की धारणा से अभिन्न है । हेमचन्द्र ने यमक का स्वरूप - निरूपण भी मम्मट के ही मतानुसार किया है।
चित्र - अलङ्कार के विवेचन में हेमचन्द्र ने मम्मट के मत को तो स्वीकार किया ही है, उसके सम्बन्ध में दण्डी आदि की मान्यता को भी ग्रहण किया है । आकार - चित्र की धारणा मम्मट से ली गयी है; पर स्वरादि के नियम से सम्बद्ध चित्र तथा च्युत, गूढ़ आदि चित्र प्रकार की धारणा दण्डी तथा रुद्रट से गृहीत है । दण्डी ने यमक-प्रपञ्च के विवेचन-क्रम में स्वर- व्यञ्जन के नियम के अनेक भेदों का उल्लेख किया था और विस्मयजनक होने के कारण उन्हें चित्र कहा था । रुद्रट ने खड्गादि आकृति बद्ध चित्र का विवेचन करने के उपरान्त च्युतक, गूढ़ आदि का निर्देश किया था और उन्हें बौद्धिक क्रीड़ामात्र में उपयोगी कहा था। हेमचन्द्र ने चित्र अलङ्कार विषयक उक्त
१. द्रष्टव्य - रुद्रट, काव्यालङ्कार, ५, २४
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