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________________ अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान [ २१ मानना ही समीचीन है, जिस पूर्णता में अलङ्कार अविशिष्ट अङ्ग है । इसलिए कोचे की यह मान्यता उचित ही है कि काव्य एक सम्पूर्ण अभिव्यञ्जना है और अलङ्कार उस अभिव्यक्ति का सम्पूर्ण से अविभाज्य साधन है । भारतीय अलङ्कार-शास्त्र के आचार्यों ने अलङ्कार और अलङ्कार्य के इस अविच्छेद्य सम्बन्ध को बहुत पहले ही समझा था । अनेक आचार्यों ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में अलङ्कार और अलङ्कार्य के अभेद का निरूपण भी किया है । विच्छित्ति, अभिधान के प्रकारविशेष, उक्तिभङ्गी आदि को अलङ्कार का लक्षण मानने में अलङ्कार्य ( शब्द, अर्थ, रस या ध्वनि) से उसके अविभाज्य सम्बन्ध की धारणा निहित थी । भारतीय चिन्ता-धारा अनेकता में एकता, भेद में अभेद का सूत्र ढूँढ़ती रही है । दार्शनिकों ने सम्पूर्ण विश्व को विभु की विभूतियों की अभिव्यक्ति माना है । इस जगत्-रूपी काव्य को अभिव्यक्त करने के कारण वह ब्रह्म कवि है । २ शैव मतावलम्बियों का शिव इस वैचित्र्यपूर्ण जगत् का निर्माण करता है, अतः वह श्रेष्ठ कलाकार है । उसकी कला में उसकी विभूति का ही उन्मेष होता है । 3 इस प्रकार इस विश्व की विविधता में भी तात्त्विक एकरूपता अन्तर्निहित है । काव्य कवि की आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति होता है । कवि की अखण्ड अनुभूति ही काव्य में नाना रूपों में अभिव्यक्त होती है । अतः काव्य के विविध अङ्गों में एक अन्विति का, तात्त्विक अभेद का होना स्वाभाविक है । भारत के साहित्यशास्त्रीय चिन्तन पर अद्वैतवादी वेदान्त दर्शन का तथा शैवमत का पुष्कल प्रभाव पड़ा है । अद्वैतवादियों ने जीव, जगत और ब्रह्म की, सृष्टि और स्रष्टा की, जगत्-काव्य और उसके कवि की तात्त्विक अभिन्नता स्वीकार कर भी उनके बीच व्यावहारिक भेद की कल्पना को तर्कसङ्गत माना है । काव्यशास्त्र के विचारकों ने भी काव्य को कवि की अनुभूति की अखण्ड व्यञ्जना मानकर सभी काव्य-तत्त्वों की तात्त्विक अभिन्नता स्वीकार की है; पर विश्लेषण के लिए उनकी व्यावहारिक भिन्नता की कल्पना भी समीचीन मानी है । शब्द को ब्रह्म मानकर उसके विवर्त अर्थ को तो उससे अभिन्न माना ही गया है, रस या काव्यानन्द की अनुभूति के समय काव्य के सभी अङ्गों की १. कोचे, एस्थेटिक्स, ६, पृ०६६ २. कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः, ईशावास्योपनिषद्, ३. निरुपादानसम्भारमभित्तावेव तन्वते । . जगच्चित्र ं नमस्तस्मै कलाश्लाघाय शूलिने ॥ - नारायण भट्ट, स्तवचिन्तामणि, काव्यप्रकाश में उद्धृत, पृ० ५४
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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