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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
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समन्वित अखण्ड अनुभूति ही स्वीकार की गई है । उस अनुभूति में विभाव आदि की विशिष्ट अनुभूति का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रह जाता । वाच्य अर्थ तथा उसके उपस्कारक अलङ्कार आदि भी उस काव्यानन्द की समग्र अनुभूति में मिलकर उसके अविभाज्य अङ्ग बन जाते हैं । उस अखण्ड काव्यानन्द की अनुभूति - दशा तक पहुँचने में वाच्यार्थ, अलङ्कार आदि के बोध का क्रम यदि हो भी तो वह इतना अलक्ष्य होता है कि भावक उसे परख नहीं पाता । कमल की सैकड़ों पँखुड़ियों को ऊपर-नीचे रखकर एक बार उनमें सूई चुभो देने पर वह सूई सभी पंखुड़ियों में छेद तो एक क्रम से ही करती है; पर उस क्रम को कौन परिलक्षित कर पाता है ? यही स्थिति वाच्य अर्थ, अलङ्कार आदि के बोध से लेकर काव्य की अखण्ड आनन्दात्मक अनुभूति की दशा तक पहुँचने की है । इस मान्यता में भेद में अभेद की धारणा निहित है । काव्य के अङ्ग भावक के हृदय में अलग-अलग अनुभूति को जगाने, उसे तीव्र करने आदि का कार्य करते हैं; पर काव्यानन्द की अनुभूति - दशा में वे सब मिलकर एकाकार हो जाते हैं । उस दशा में एक अखण्ड अनुभूति ही बच रहती है, जो स्वतः प्रकाश्य और आनन्दात्मक होती है । उस अनुभूति में काव्याङ्गों की स्थिति अनेक वस्तुओं के मिश्रण से निर्मित पेय में तत्तद् वस्तुओं की-सी हो जाती है । पेय के सभी तत्त्व अपने-अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को मिटाकर अविभाज्य रूप में पेय का स्वाद उत्पन्न करने में सहायक होते हैं । काव्य के अङ्ग भी अपनेअपने स्वतन्त्र अस्तित्व का विलयन कर एक अखण्ड काव्यानुभूति में अविभाज्य अङ्ग बन कर सहायक होते हैं । काव्य की इस अखण्ड आनन्दात्मक अनुभूति को दृष्टि में रखकर ही आनन्दवर्द्धन ने कहा था कि अपृथग्यत्ननिर्वर्त्य अलङ्कार रसानुभूति में अन्तरङ्ग अङ्ग बनकर ही सहायक होते हैं । भामह, दण्डी, वामन आदि आचार्यों ने भी उपमा आदि विशेष अलङ्कारों का गुण आदि से भेद-निरूपण कर पुनः सभी काव्य-तत्त्वों को सामान्य रूप से काव्य का अलङ्कार या सौन्दर्य कहकर सब की तात्त्विक अभिन्नता स्वीकार कर ली है । इस मान्यता में कोई स्वतः - विरोध नहीं । काव्य-सौन्दर्य या काव्यानुभूति की अखण्डता की दृष्टि से सभी काव्य-तत्त्व अभिन्न हैं; पर काव्याङ्गों के अलग-अलग विवेचन में सबके स्वतन्त्र अस्तित्व तथा उनके सापेक्ष महत्त्व की कल्पना भी अनुपादेय नहीं । तर्कशास्त्र का यह मान्य सिद्धान्त है कि
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" तस्मान्न तेषां बहिरङ्गत्वं रसाभिव्यक्तौ ।
— आनन्दवर्द्धन, ध्वन्या० २ पृ० १३२