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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास . [ ११.३ प्रणाली में वैधयं की धारणा वर्तमान थी। व्यतिरेक के इस भेद की कल्पना का मूल उक्त दृष्टान्त तथा वैधर्म्य की धारणा में पाया जा सकता है। उद्भट का एक अन्य व्यतिरेक-भेद श्लिष्टोक्तियोग्यशब्दयुक्त व्यतिरेक संज्ञा से अभिहित किया जा सकता है।' श्लिष्टोक्ति की धारणा भामह आदि प्राचीन आचार्यो की श्लिष्ट-अलङ्कार-धारणा से ली गयी है। इस प्रकार श्लिष्ट कथन की धारणा के साथ व्यतिरेक की धारणा को मिला कर इन नवीन व्यतिरेकप्रकार की कल्पना कर ली गयी है। ___ इस विवेचन से स्पष्ट है कि कुछ अलङ्कारों के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती आचार्यों के सिद्धान्त से सहमत होने पर भी उद्भट ने उनके कुछ नवीन भेदों की कल्पना कर ली है। फिर भी यह मान लेने का सबल आधार है कि पूर्ववर्ती आचार्य उद्भट के द्वारा उद्भावित उन अलङ्कारभेदों की सम्भावना से सर्वथा अपरिचित नहीं थे। पूर्वाचार्यों के अलङ्कारविशेष के सामान्य लक्षण में निहित प्रकार-कल्पना के बीज का ही पल्लवन उद्भट की रचना में हुआ है। पर्यायोक्त पर्यायोक्त अलङ्कार के स्वरूप की कल्पना में उद्भट भामह से सहमत हैं; किन्तु उन्होंने भामह-प्रदत्त पर्यायोक्त-परिभाषा को और अधिक स्पष्ट करने का प्रयास किया है । 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' के पर्यायोक्त-लक्षण-श्लोक की प्रथम पंक्ति भामह के 'काव्यालङ्कार' से ही ली गयी है। उसी अर्थ के स्पष्टीकरण के लिए उद्भट ने श्लोक की द्वितीय पंक्ति की रचना की है। प्राचीन अलङ्कार-लक्षण को स्पष्ट रूप में उपस्थित करने-मात्र का श्रेय उद्भट को है। उदात्त ।.. . . . . भामह ने उदात्त के जिन दो रूपों का निर्देश किया था उन्हें दण्डी ने आने 'काव्यादर्श' में परिभाषित किया। दोनों आचार्यों की मान्यता थी कि १. श्लिष्टोक्तियोग्यशब्दस्य पृथक् पृथगुदाहृतौ। विशेषापादनं यत् स्यात् व्यतिरेकः स च स्मृतः ॥ -उद्भट, काव्यालं० सार सं०, २, १७ २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ४, ११ तथा भामह काव्यालं०, ३, ८।
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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