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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २४५ अलङ्कार है। इस अलङ्कार की धारणा का बीज भी आचार्य भरत के कार्यलक्षण में देखा जा सकता है। उद्रक __ दोष और गुण का सजातोय या विजातीय की अपेक्षा तुच्छत्व-वर्णन में उद्रेक अलङ्कार की सत्ता स्वीकार की गयी है।' एक दोष या गुण से दूसरे दोष के तुच्छ किये जाने में तथा एक दोष या गुण से दूसरे गुण के न्यक्करण में विशेष चमत्कार नहीं। एक वस्तु से दूसरी वस्तु ( उपमेय से उपमान ) के न्यक्करण में व्यतिरेक अलङ्कार की सत्ता सभी आचार्यों ने मानी ही है। उससे पृथक् गुण-दोष में एक के द्वारा दूसरे के न्यग्भाव में पृथक् अलङ्कार की कल्पना आवश्यक नहीं। तुल्य
दोष-गुण के सम्बन्ध पर ही तुल्य अलङ्कार की भी कल्पना की गयी है । शोभाकर की मान्यता है कि जहाँ एक दोष के निवृत्त होने पर दूसरे दोष का उदय हो; इसी प्रकार एक गुण की निवृत्ति और दूसरे गुण का उदय हो वहाँ तुल्य अलङ्कार होता है ।२ एक के शमन के उपरान्त क्रम से दूसरे का उदय पर्याय का विषय है। अतः पर्याय अलङ्कार से पृथक् इसके अस्तित्व की कल्पना समीचीन नहीं। शोभाकर इस तथ्य से अवगत थे। इसलिए उन्होंने वृत्ति में यह स्पष्ट किया है कि यह पर्याय का विषय हो सकता है, पर दोष और गुण के ही उदय-प्रशम पर आधृत होने के कारण पर्याय से स्वतन्त्र अस्तित्व भी रखता है। स्पष्ट है कि तुल्य के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना के पीछे केवल नवीनता-प्रदर्शन का मोह ही है। अनादर
जैसी वस्तु प्राप्त हो उसके समान अन्य वस्तु की प्राप्ति के लिए उस ( प्राप्त ) वस्तु का जहाँ अनादर किया जाय वहाँ अनादर नामक अलङ्कार
१. सजातीयविजातीयाभ्यां तुच्छत्वमुद्रेकः ।-शोभाकर, अलं. रत्ना०६८ २. निवृत्तावन्योदयस्तुल्यम् ।-वहीं, ६६ ३. यद्यवमेकस्य दोषस्य निवृत्तौ क्रमेण दोषान्तरगमनात्पर्यायस्यायं विषयः ।
सत्यम् । तथाप्येक-दोषादि-निवृत्तौ दोषान्तरादेराविर्भावात्प्रकृताकार्यसम्पत्तिलक्षणायास्तुल्यताया अत्र निष्पत्तिरेव।
-वही, वृत्ति, पृ० १२१