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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [६६७ उपमानोपमेयभाव की किसी-न-किसी रूप में प्रतीति हो जाती है। वस्तुप्रतिवस्तुभाव में भी औपम्य का जो बोध होता है, उसकी सफलता प्रतिपत्ता की प्रतीति को विशद बनाने में ही होगी। अतः, प्रतीति के विशदाकरण को दृष्टान्त का व्यावर्तक तथा उपमानोपमेयभाव को प्रतिवस्तूपमा का व्यावर्तक मानना युक्तिपूर्ण नहीं जान पड़ता। प्रतिवस्तूपमा तथा दृष्टान्त-दोनों में औपम्य गम्य होता है।' पण्डितराज जगन्नाथ ने विमशिनीकार के उक्त मत का खण्डन इसी आधार पर किया है। पण्डितराज की मान्यता है कि दृष्टान्त में धर्म भी प्रतिबिम्बित होता है जब कि प्रतिवस्तूपमा में वह धर्म शुद्ध सामान्य रूप में रहता है।
उद्भट के काव्यालङ्कारसार की विवृति में दृष्टान्त और प्रतिवस्तूपमा का भेद-निरूपण करते हुए कहा गया है कि दृष्टान्त में इष्ट अर्थ का प्रतिबिम्ब 'दिखाया जाता है, जो सादृश्य-वाचक इवादि पद से रहित होता है; पर प्रति वस्तूपमा में साधारण धर्म का उपमेय वाक्य तथा उपमान वाक्य; दोनों में उल्लेख होता है। विश्वनाथ ने प्रतिस्तूपमा से दृष्टान्त का भेद स्पष्ट करने के लिए दृष्टान्त-लक्षण में प्रयुक्त 'सधर्म' विशेषण का औचित्य प्रतिपादित किया है।' उस विशेषण की व्याख्या में उन्होंने कहा है कि सधर्म से वस्तु-धर्म का सादृश्य
१. विशिनीकारस्तु प्रतिवस्तूपमायामप्रकृतार्थोपादानं तेन सह प्रकृतार्थस्य
सादृश्यप्रतिपत्त्यर्थ, दृष्टान्ते तु तदुपादानमेतादृशोऽर्थोऽन्यत्रापि स्थित इति प्रकृतार्थप्रतीतेविशदीकरणमात्रार्थं न तु सादृश्यप्रतिपत्त्यर्थमतः सादृश्यप्रतीत्यप्रतीतिभ्यामनयोरलङ्कारयोभद इत्याह। तन्न प्रकृताप्रकृतवाक्यार्थयोरुपादानस्यालङ्कारद्वय ऽप्यविशिष्टत्वादेकत्र सादृश्यप्रत्ययोऽन्यत्र नेत्यस्याज्ञामात्रत्वात् । वैपरीत्यस्यापि सुवचत्वाच्च । एतदृशोयोऽन्यत्रापि स्थित इति प्रकृतार्थप्रतीतिविशदीकरणस्य त्वदभिहितस्य सादृश्यापरपर्यायत्वाच्च ।-जगन्नाथ, रसगं०, पृ० ५३३ २. अस्य (दृष्टान्त) चालङ्कारस्य प्रतिवस्तूपमया सह भेदकमेतदेव यत्तस्यां धर्मो न प्रतिबिम्बितः। किन्तु शुद्धसामान्यात्मनैव स्थितः, इह तु प्रतिबिम्बितः। वही, पृ० ५३२-३३ ३. ....."प्रतिवस्तूपमायां च साधारणधर्म उपमानोपमेययोरुभयोरपि निगदो भवति ।....."इह तु सर्वात्मना प्रतिबिम्बोपन्यासः ।
-काव्यालङ्कारसारसंग्रह, विवृति, पृ० ५२ २४. सधर्मस्येति प्रतिवस्तूपमाव्यच्छेदः ।
-विश्वनाथ, साहित्यदर्पण, १०, ६६ की वृत्ति वही पृ०६८०