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१०० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण में समान स्वरूप वाले वर्गों का विन्यास वाञ्छनीय माना था।' उद्भट के खेकानुप्रास की सम्भावना भामह की उक्त कल्पना में निहित थी। भरत के यमक के साथ भामह के अनुप्रास के सम्बन्ध का विवेचन किया जा चुका है । २ यह मानना असङ्गत नहीं होगा कि उद्भट से पूर्ववर्ती आचार्य छेकानुप्रास की वर्णयोजना-भङ्गी से सर्वथा अपरिचित नहीं थे। सङ्कर
प्रस्तुत अलङ्कार का नामोल्लेख 'काव्यालङ्कारसारसंग्रह' की रचना के पूर्व नहीं पाया जाता; किन्तु अभिधान नवीन होने पर भी इसका स्वरूप अज्ञातपूर्व नहीं था। उद्भट के पूर्व दण्डी ने अलङ्कारों के सङ्कीर्णत्व की चर्चा करते हुए उसके एक भेद में अनेक अलङ्कारों का अङ्गाङ्गिभाव से सद्भाव स्वीकार किया था। उद्भट का अनुग्राह्यानुग्राहक भाव सङ्कर दण्डी के उक्त संसृष्टिभेद से अभिन्न है। स्पष्ट है कि पूर्वाचार्यों की अलङ्कार-संसृष्टि के आधार पर सङ्कर अलङ्कार की कल्पना हुई है। मेरी मान्यता है कि ससृष्टि तथा सङ्कर को स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं मान कर अनेक अलङ्कारों के एकत्र सन्निवेश की विभिन्न अवस्थाएँ मानना अधिक युक्ति-सङ्गत है। आचार्य भरत ने विभूषण लक्षण में अनेक अलङ्कारों तथा गुणों के सामानाधिकरण्य की कल्पना की है।४ सङ्कर में अनेक अलङ्कार समान अधिकरण में रहते हैं। अतः सङ्कर एवं संसृष्टि की कल्पना का आधार भरत की विभूषण-धारणा को माना जा सकता है।
सङ्कर के अनुग्राह्यानुग्राहक भेद-जो दण्डी के अङ्गाङ्गिभाव सङ्कीर्ण से अभिन्न है—के अतिरिक्त तीन अन्य भेदों की भी कल्पना उद्भट ने की है। वे हैं-सन्देहसङ्कर, शब्दार्थवल्लङ्कार तथा एकशब्दाभिधान सङ्कर।५ सङ्कर के ये सभी भेद एक अधिकरण में अनेक अलङ्कारों के सद्भाव की मान्यता पर आधृत
१. सरूपवर्णविन्यासमनुप्रासं प्रचक्षते ।-भामह, काव्यालं० २, ५ २. द्रष्टव्य-प्रस्तुत ग्रन्थ पृ० ३३ ३. द्रष्टव्य-दण्डी, काव्याद० २, ३६० ४. अलङ्कारैगुणश्चैव बहुभिर्यदलङ कृतम् । भूषणरिव विन्यस्तैस्तद्भ षणमिति स्मृतम् ।
-भरत, ना० शा० १६,५ ५. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० ५, ११-१३ ।