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अलङ्कार-धारणा का विकास
[१६१ अभिधान तथा उसका सामान्य उपमान से साधर्म्य के द्वारा समर्थन हो, (ख) जहाँ सामान्य उपमेय का अभिवान कर विशेष उपमान से साधर्म्य के द्वारा उसका दृढीकरण होता हो, (ग) जहाँ विशेष उपमेय का अभिधान एवं सामान्य उपमान से वैधर्म्य के द्वारा उसका समर्थन किया जाय और (घ) जहाँ सामान्य उपमेय का विशेष उपमान से वैधर्म्य के द्वारा दृढीकरण हो। सामान्य एवं विशेष प्रस्तुत के क्रमशः विशेष एवं सामान्य अप्रस्तुत से समर्थन की धारणा दण्डी से ली गयी है। उक्त दो भेदों के साधर्म्य तथा वैधर्म्य के आधार पर चार भेद कर लिये गये हैं। रुद्रट के पूर्ववर्ती दण्डी आदि आचार्यों के सामान्य अर्थान्तरन्यास-लक्षण में इन भेदों की कल्पना का बीज निहित था। विभावना
रुद्रट के अतिशय-वर्ग-गत विभावना अलङ्कार की सामान्य प्रकृति पूर्ववर्ती आचार्यों की विभावना से अभिन्न है। हेतु के अभाव में कार्य के आविर्भाव को मूलतः विभावना का विधायक स्वीकार किया गया है। अभाव शब्द में ना के विभिन्न अर्थों के आधार पर विभावना के अनेक भेदों की कल्पना सम्भव है। ना से अभाव के साथ अल्पभाव आदि अर्थ का भी बोध होता है। अतः कारण की अल्पता आदि से भी पूर्ण फल की उत्पत्ति में विभावना की कल्पना की जा सकती है। रुद्रट ने प्रस्तुत अलङ्कार के तीन रूपों की कल्पना की है(क) जिस कारण से किसी वस्तु की उत्पत्ति होती है उस कारण के
अभाव में भी कारणान्तर से उसका सद्भाव वणित होना। (ख) किसी वस्तु के विकार के हेतु के अभाव में भी उसमें विकार का
वर्णन किया जाना। (ग) किसी वस्तु के लोक-प्रसिद्ध धर्म का उससे भिन्न वस्तु में भी सद्भाव
दिखाया जाना। विभावना के प्रथम दो स्वरूपों में तात्त्विक भेद नहीं है। प्रथम भेद की तरह द्वितीय में भी (विकार के) कारण के अभाव में (विकार रूप) कार्य की उत्पत्ति दिखायी जाती है। विभावना के उक्त दो रूपों की कल्पना रुद्रट ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के विभावना-लक्षण के आधार पर की है। भामह
१. द्रष्टव्य-वही ६,१६-२०