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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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'पण्डितराज जगन्नाथ की भी यही मान्यता है।' उद्योतकार के अनुसार दोनों का एक भेद यह भी है कि मीलित में धर्मी भी तिरोहित हो जाता है; पर तद्गुण में केवल गुण (धर्म) का ही तिरस्कार होता है। धर्मी अपने गुण-मात्र का त्याग कर अन्य के गुण को ग्रहण करता है। अतः, धर्मी का तिरस्कार नहीं होता। उसकी स्वतन्त्र सत्ता अवभासित ही रहती है ।
सामान्य और तद्गुण
सामान्य में वस्तु अपने गुण का त्याग नहीं करती। उसके गुण की अन्य वस्तु के गुण से केवल एकात्मतया प्रतीति होती है। वैशिष्ट्याधायक गुण के अभाव में उसके गुण की पृथक् प्रतीति नहीं होती, अन्य वस्तु के गुण के साथ सामान्यतया प्रतीति होती है; पर तद्गुण में वस्तु अपने गुण का त्याग कर अन्य वस्तु के गुण को ग्रहण करती है, यही 'काव्यप्रकाश' के टीकाकार वामन 'झलकीकर के अनुसार उक्त दो अलङ्कारों का भेद है।
सामान्य और भ्रान्तिमान्
भ्रान्तिमान में स्मर्यमाण वस्तु का आरोप होता है; पर सामान्य में अनुभूयमान वस्तु का-यह दोनों का भेद है। भ्रान्ति में किसी वस्तु को देखकर संस्कार-रूप में मन में स्थित वस्तु की स्मृति जाग्रत होकर उस वस्तु पर आरोपित हो जाती है; पर सामान्य में वस्तु का गुण अन्य वस्तु के गुण से अविशिष्टतया अनुभूत होता है। मम्मट ने भ्रान्ति में किसी वस्तु में अप्राकरणिक
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८१४, २. मीलिते धर्मिणोऽपितिस्कारः .."इह (तद्गुणे ) तु गुणमात्रस्य व तिरस्कारः धर्मिणश्च पृथगवभास इति भेदः ।
-काव्यप्रकाश, उद्योत टीका; बालबोधिनी में उद्धृत, पृ० ७४६ ३. सूत्र (मम्मटकृतसामान्यालङ्कारलक्षणसूत्र) प्रस्तुतस्येत्यस्य 'अपरि
त्यक्तनिजगुणस्य' इत्यपि .विशेषणं विवक्षितमित्यत आह अपरित्यक्तनिजगुणमेवेति । तेन वक्ष्यमाणात्तद्गुणालङ्काराद्भेदः तत्र निजगुण
परित्यागात् । -काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका, पृ० ७३६ ४. न च भ्रान्तिमता सङ्करः, तत्र स्मर्यमाणस्य आरोपोऽत्र ( सामान्ये ) अनुभूयमानस्येति विशेषात् । -काव्यप्रकाश, झलकीकर की टीका
पृ० ७३६