SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२० ] __ अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण ___ रुय्यक ने निदर्शना को किञ्चित् नवीन रूप से परिभाषित किया है, यद्यपि उक्त अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी मान्यता मूलतः प्राचीन आचार्यों से बहुत भिन्न नहीं है। भामह ने सादृश्य के वाचक पद के बिना केवल क्रिया से विशिष्ट अर्थ का प्रदर्शन निदर्शना का लक्षण माना था। उनके अनुसार इसमें सादृश्य व्यङग्य रहता है । ' उद्भट आदि ने वस्तु सम्बन्ध के असम्भव या सम्भव होने पर उपमा में उसके पर्यवसान में निदर्शना का सद्भाव माना था ।२ रुय्यक ने वस्तु सम्बन्ध के असम्भव या सम्भव होने पर गम्यमान वस्तु के साथ उसके (प्रस्तुत वस्तु के) बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव की कल्पना में उक्त अलङ्कार माना है। इस प्रकार प्राचीनों के उपमानोपमेयभाव में पर्यवसान की कल्पना के स्थान पर बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव की कल्पना-मात्र नवीन है । बिम्ब-प्रतिबिम्ब की कल्पना दृष्टान्त से ली गयी है । रुय्यक की निदर्शना का दृष्टान्त से यह भेद है कि दृष्टान्त में परस्पर निरपेक्ष वाक्यार्थों का बिम्ब-प्रतिबिम्ब सम्बन्ध होता है और निदर्शना में प्रकृत वाक्यार्थ पर ही अन्य वाक्यार्थ का आरोप हो जाता है। इस प्रकार प्रस्तुत अलङ्कार में प्रकृत तथा गम्यमान अर्थ में बिम्ब-प्रतिबिम्बभाव सम्बन्ध दिखाया जाता है। रुय्यक की निदर्शना-धारणा भामह तथा उद्भट ; दोनों की धारणा से प्रभावित है। रुय्यक के मालादीपक अलङ्कार का स्वरूप पूर्ववर्ती आचार्यों के मालादीपक के स्वरूप से बहुत-कुछ मिलता-जुलता है। आचार्य दण्डी ने दीपक के माला-भेद के सम्बन्ध में यह मान्यता प्रकट की थी कि इसमें उत्तर-उत्तर स्थित वाक्य अपने-अपने पूर्ववर्ती वाक्य की अपेक्षा रखते हैं।४ मम्मट ने इसी धारणा को व्यक्त करने के लिए कहा था कि मालादीपक में पूर्व-पूर्व स्थित वाक्य अपने-अपने उत्तरवर्ती वाक्य का उपकार करते हैं ।" उत्तरवर्ती वाक्यों का पूर्ववर्ती वाक्यों की अपेक्षा रखने में तथा उनसे उपकृत होने में कोई मौलिक भेद नहीं है। मम्मट ने उपकारकारक के अर्थ में मालादीपक की १. क्रिययैव विशिष्टस्य तदर्थस्योपदर्शनात् । ज्ञेया निदर्शना नाम यथेववतिभिविना॥-भामह, काव्यालङ्कार, ३, ३३ २. उद्भट, काव्यालङ्कार, ५, ३१ ३. सम्भवतासम्भवता वा वस्तुसम्बन्धेन गम्यमानं प्रतिबिम्बकरणं निदर्शना। -रुय्यक, अलङ्कारसूत्र, २७ ४. दण्डी, काव्यादर्श, २, १०८ ५. मम्मट, काव्यप्रकाश, १०, १५७ पृ० २५४
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy