SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ २१६ इस सन्दर्भ में अलङ्कार शब्द का प्रयोग सामान्य अर्थ में ही किया है, काव्यालङ्कार के विशेष अर्थ में नहीं । इसीलिए उन्होंने रसादि के गुणीभूत स्वरूप को अलङ्कार कहने पर भी उनका विवेचन अलङ्कार - निरूपण के सन्दर्भ में नहीं कर गुणीभूतव्यङय के अपराङ्ग-भेद के विवेचन-क्रम में किया है । अलङ्कारसम्प्रदाय के आचार्यों ने रस आदि को भी अलङ्कार - विशेष की सीमा में आबद्ध करने का यत्न किया है । रुय्यक अलङ्कारवाद के प्रबल समर्थक थे । अतः उन्होंने रस, भाव आदि के निबन्धन में रसवत्, प्रोय आदि अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार कर ली । ध्वनि-प्रस्थान की स्थापना के पूर्व भामह, दण्डी, उद्भट आदि ने भी रसपेशल वाक्य में रसादि अलङ्कार का सद्भाव माना था । उद्भट ने रस के निबन्धन में रसवत्, भाव- निबन्धन में प्रय, रसाभास तथा भावाभास - निबन्धन में ऊर्जस्वी एवं रस-भाव आदि की शान्ति के निबन्धन में समाहित अलङ्कार का सद्भाव माना था । रुय्यक की धारणा इससे अभिन्न है । भावोदय, भावसन्धि तथा भावशबलता के स्वरूप के सम्बन्ध में रुय्यक की धारणा मम्मट की धारणा के ही समान है । रुय्यक के प्रय, ऊर्जस्वी तथा समाहित का भामह के इन्हीं नाम वाले अलङ्कारों से सम्बन्ध नहीं है । व्यतिरेक अलङ्कार के सम्बन्ध में रुय्यक की धारणा उद्भट आदि प्राचीन आचार्यों की धारणा के समान है । मम्मट से पूर्व उपमान की अपेक्षा उपमेय के आधिक्य - रूप व्यतिरेक के साथ उपमेय के हीनत्व-रूप व्यतिरेक की भी सत्ता स्वीकृत थी । मम्मट ने उसका केवल प्रथम रूप स्वीकार किया था । रुय्यक ने व्यतिरेक उक्त दोनों रूप स्वीकार किये हैं । १ श्लेष अलङ्कार की सामान्य धारणा प्राचीन आचार्यों की धारणा के समान है । मम्मट के काल तक श्लेष के दो भेद – शब्दश्लेष तथा अर्थश्ले ष - स्थापित हो चुके थे । रुय्यक ने दोनों को मिला कर एक शब्दार्थोभयगत श्लेष भेद की भी कल्पना कर ली है । अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष का पृथक्-पृथक् लक्षण-निरूपण नहीं कर रुय्यक ने श्लेष का एक सामान्य लक्षण देकर उक्त तीन भेदों का स्पष्टीकरण किया है । यदि अलङ्कार सर्वस्व को रुय्यक - कृत नहीं माना जाय, जैसा कि कुछ विद्वानों का मत है, तो उक्त भेद-कल्पना के श्र ेय के भागी वृत्तिकार (मङ खुक ? ) होंगे । १. भेदप्राधान्य उपमानादुपमेयस्याधिक्ये विपर्यये वा व्यतिरेकः । —रुय्यक, अलङ्कारसूत्र २८, उद्भट का काव्यालङ्कार, २,११ भी द्रष्टव्य २. विशेष्यस्यापि साम्ये द्वयोर्वोपादाने श्लेषः । रुय्यक, अलङ्कार सूत्र, ३३ ॥
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy