________________
* ५४२ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
अनेक द्रव्यों का एक क्रिया से योग रूप समुच्चय, अनेक क्रियाओं का एक द्रव्य समुच्चय, अनेक गुणों का एक क्रियासमुच्चय आदि रूपों की कल्पना की जा सकती है । रुद्रट ने अनेक सत्-असत् पदार्थों के एकत्र योग की कल्पना समुच्चय में की थी। भोज ने अनेक द्रव्य, क्रिया, गुण आदि के एक क्रिया, द्रव्य आदि से योग की कल्पना समुच्चय में की।
आचार्य मम्मट की समुच्चय-धारणा नवीन है । उन्होंने समुच्चय अभिधान के यौगिक अर्थ को दृष्टि में रखते हुए एकत्र अनेक के योग की धारणा अवश्य प्रकट की है; किन्तु समुच्चय का यह स्वतन्त्र लक्षण दिया है कि जहाँ प्रस्तुत कार्य के एक साधक के रहते हुए अन्य साधक के भी होने का वर्णन हो, वहाँ समुच्चय अलङ्कार होता है ।' स्पष्ट है कि मम्मट समुच्चय का तात्पर्य एक कार्यविशेष के अनेक साधकों का समुच्चय मानते थे । कार्य का एक प्रधान साधक तो रहता ही है; उसके साथ अन्य साधकों का भी योग वर्णित होने पर समुच्चय अलङ्कार होता है । गुण-क्रिया के युगपत् सद्भाव को भी मम्मट ने समुच्चय का दूसरा रूप माना है । उनकी यह समुच्चय-धारणा भोज की धारणा से अशतः मिलती-जुलती है । उन्होंने इसके तीन भेद माने हैं— (क) गुणों का समुच्चय, (ख) क्रियाओं का समुच्चय और (ग) गुण एवं क्रिया का एक साथ समुच्चय । रुय्यक ने मम्मट की समुच्चय धारणा को ही स्वीकार किया है | 3
विश्वनाथ ने रुय्यक के मत का अनुसरण करते हुए समुच्चय के उक्त दोनों रूप स्वीकार किये हैं । उन्होंने एक कार्य के साधक के साथ अन्य साधक के योग का सत् असत् आदि के आधार पर भेद-निरूपण किया है । साधक सभी सुन्दर भी हो सकते हैं, असुन्दर भी और दोनों मिले-जुले भी । अप्पय्य दीक्षित भी अनेक वस्तुओं के युगपद्भाव तथा एक कार्य के साधन में अनेक साधकों के आ जुटने में समुच्चय मानते हैं । ७ जगन्नाथ को भी पदार्थों
१. तत्सिद्धिहेत वेकस्मिन् यत्रान्यत्तत्करं भवेत् । समुच्चयोऽसौ.
..... - मम्मट, काव्यप्र० १०, १७८ २. स त्वन्यो युगपत् या गुणक्रियाः । - वही, १०, १७६ ३. गुणक्रियायौगपद्य ं समुच्चयः । तथा एकस्य सिद्धिहेतुत्वेऽन्यस्य तत्करत्वं च । - रुय्यक अलं० सर्वस्व, सूत्र ६५, ६६
४. द्रष्टव्य - विश्वनाथ, साहित्यदर्पण १०, ११०
५. द्रष्टव्य - अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द ११५-१६