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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
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का युगपद् अन्वय समुच्चय में अभीष्ट है। एक कार्य के सम्पादन में अनेक साधकों का आ जाना भी समुच्चय का लक्षण वे मानते हैं।' इस प्रकार मम्मट तथा रुय्यक के बाद उन्हीं की समुच्चय-विषयक मान्यता स्वीकृत हुई। निष्कर्षतः, समुच्चय के निम्नलिखित रूप स्वीकृत हैं
(१) अनेक गुण-क्रिया का युगपद्भाव या एक साथ कथन जिसके तीन रूप सम्भव हैं—अनेक गुणों का, अनेक क्रियाओं का तथा अनेक गुण-क्रियाओं का समन्वित रूप से एकत्र योग ।
(२) एक कार्य की सिद्धि के लिए अनेक साधकों का आ जाना। समुच्चय-भेद ___ गुण-क्रिया आदि के पृथक्-पृथक् तथा समन्वित योग के आधार पर तथा कार्य-साधक के सत्, असत् तथा सदसत् होने के आधार पर समुच्चय के अनेक भेद किये जा सकते हैं।
यथासंख्य
यथासंख्य शब्द-गुम्फ के विशेष क्रम की धारणा पर आधृत अलङ्कार है। एक क्रम से कथित अर्थों का उसी क्रम से अन्वय इसकी मूल धारणा रही है। आचार्य भामह ने इसे परिभाषित करते हुए कहा था कि जहाँ पूर्व-निर्दिष्ट अनेक असधर्म अर्थों का क्रमशः अनुनिर्देश किया जाय, वहाँ यथासंख्य अलङ्कार होता है। इसमें एक बार अनेक अर्थों का निर्देश तथा पुनः उन अर्थों का 'ऋमिक अनुनिर्देश होता है। पूर्व-निर्दिष्ट अर्थों में जो क्रम रहता है उसी क्रम से उनके पुनः निर्देश में जो चमत्कार रहता है, वही इसके अलङ्कारत्व का हेतु है। अर्थों का निर्देश तथा अनुनिर्देश अपने आप में अलङ्कार नहीं, अलङ्कारत्व है निर्दिष्ट तथा अनुनिर्दिष्ट अर्थों के समान क्रम में ! क्रम में सौन्दर्य होने के कारण इसे 'क्रम' संज्ञा से भी अभिहित किया गया है। दण्डी ने क्रम के साथ संख्यान अभिधान का भी प्रयोग प्रस्तुत अलङ्कार के लिए किया है। भामह ने यथासंख्य और उत्प्रेक्षा; इन दो अलङ्कारों का नाम्ना निर्देश कर उन्हें मेधावी के द्वारा निरूपित बताया है। उनका कथन है कि
१. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगंगाधर, पृ० ७७६-७७ २. भूयसामुपदिष्टानामर्थानामसधर्मणाम् ।
क्रमशो योऽनुनिर्देशो यथासंख्यं तदुच्यते ।-भामह, काव्यालं० २,८६