________________
५४४ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
मेधावी ने उत्प्रेक्षा को संख्यान भी कहा है। यह कथन सदोष जान पड़ता है। भामह सम्भवतः यह कहना चाहते होगे कि यथासंख्य और उत्प्रेक्षा के लिए आचार्य मेधावी ने संख्यान और उत्प्रेक्षा अभिधान का प्रयोग किया है। हो सकता है कि अपपाठ के कारण भामह का वह अभीष्ट अर्थ स्पष्ट नहीं हो पा रहा हो। दण्डी की यह मान्यता उचित जान पड़ती है कि यथासंख्य का ही दूसरा नाम संख्यान है। दण्डी ने आचार्य भामह की यथासंख्य-धारणा को स्वीकार कर उसकी परिभाषा इस प्रकार दी है-उद्दिष्ट अर्थात् पूर्व-उक्त पदार्थों का उसी क्रम से पीछे कहे हुए अर्थों के साथ अन्वय यथासंख्य, संख्यान या क्रम अलङ्कार है।
उद्भट ने भामह के यथासंख्य लक्षण को अक्षरशः स्वीकार कर लिया है।२ वामन सभी अलङ्कारों को औपम्य-गर्भ या उपमा-प्रपञ्च मानते थे। अतः क्रम या यथासंख्य में भी उन्होंने उपमानोपमेय भाव की कल्पना की है । वामन को भी क्रम में भामह, दण्डी आदि की तरह निर्दिष्ट तथा अनुनिदिश्यमान अर्थों के क्रमबद्ध सम्बन्ध की धारणा मान्य है। इसके साथ उपमान और उपमेय की धारणा को मिलाकर वामन ने यह परिभाषा दी है कि उपमेयों तथा उपमानों का क्रम-सम्बन्ध क्रम अलङ्कार है। उनके अनुसार एक क्रम से अनेक उपमेयों का कथन कर उसी क्रम से अनेक उपमानों की सम्बन्ध-योजना क्रम अलङ्कार का लक्षण है । वामन के उत्तरवर्ती आचार्यों ने निर्दिष्ट और अनुनिर्देश्य अर्थों में उपमानोपमेय-सम्बन्ध की कल्पना भावश्यक नहीं मानी। उपमानोपमेय-भाव के अभाव में भी अर्थों का क्रम इस अलङ्कार का स्वरूप-विधान कर सकता है। ___ रुद्रट ने निर्दिष्ट तथा निर्दिश्यमान अर्थों के बीच उपमानोपमेय-भाव की जगह विशेषण-विशेष्य-भाव-सम्बन्ध की कल्पना की है। उनकी मान्यता मूलतः पूर्ववर्ती आचार्यों की क्रम-विषयक मान्यता से अभिन्न है। जिस परिपाटी या क्रम से विविध अर्थों का निर्देश किया गया हो उसी परिपाटी
१. उद्दिष्टानां पदार्थानामनूद्देशो यथाक्रमम् । यथासंख्यमिति प्रोक्त संख्यानं क्रम इत्यपि ।।
-दण्डी, काव्यादर्श २, २७३, २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं ० सार सं० ३,२ ३. उपमेयोपमानानां क्रमसम्बन्धः क्रमः।-वामन, काव्यालं० सू० ४,३,१७