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अलङ्कार और भाषा
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अस्तित्व मिट जाता हो, वहाँ अलङ्कार शब्दगत माना जायगा। कारण यह है कि ऐसी स्थिति में वह अलङ्कार मुख्यतः शब्द-सापेक्ष माना जायगा । पर्यायवाची शब्द का प्रयोग तो मूल शब्द का अर्थबोध करा ही देता है, फिर 'भी अलङ्कार की सत्ता के लुप्त हो जाने का तात्पर्य यह होता है कि उस अलङ्कार का अस्तित्व शब्द-विशेष पर अवलम्बित है, उसके अर्थ पर नहीं। जहाँ शब्द-विशेष का उसके पर्यायवाची शब्द से परिवर्तन होने पर भी अलङ्कार की सत्ता अक्षुण्ण रहे, वहाँ अलङ्कार को मुख्यतः अर्थ-सापेक्ष मानकर अर्थालङ्कार के रूप में स्वीकार किया जाता है। निष्कर्ष यह कि शब्द तथा अर्थ के चमत्कार की प्रधानता के आधार पर ही शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार वर्ग की कल्पना की गयी है। यह कल्पना शब्द और अर्थ को परस्पर सम्पृक्त मानने वाले सिद्धान्त को खण्डित नहीं करती। ___अलङ्कार शब्द और अर्थ के उपस्कारक माने जाते हैं। अनुप्रास, यमक आदि में समान वर्ण, पद आदि की आवृत्ति होने से विशेष प्रकार का ध्वनिप्रभाव उत्पन्न होता है, तो उपमा आदि अलङ्कारों में वर्ण्य अर्थ के रूप, गुण, प्रभाव आदि का उत्कर्ष-साधन होता है। सादृश्य मूलक उपमा, रूपक आदि में जब प्रस्तुत अर्थ के मेल में कोई अप्रस्तुत अर्थ रखा जाता है तब उस अप्रस्तुत का मन में जगने वाला प्रभाव प्रस्तुत के प्रभाव को उपस्कृत कर देता है। विरोधमूलक अलङ्कारों में भी विरोधमुखेन उपस्थापित अर्थ वर्ण्य वस्तु में विशेष चमत्कार ला देता है। अतिशयमूलक आदि अलङ्कारों का भी उद्देश्य वर्ण्य पदार्थ का उत्कर्ष ही होता है। जो अलङ्कार वर्ण्य वस्तु में उत्कर्ष न ला सकें, उनकी काव्य में कोई उपयोगिता नहीं। कोई उक्ति अपने-आप में अलङ्कार नहीं। उसके अलङ्कारत्व का निर्णय काव्य में अर्थ के उपस्कार की दृष्टि से ही होना चाहिए । मम्मट आदि आचार्यों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अलङ्कार प्रस्तुत भाव-बोध में उत्कर्ष ला सकते हैं; पर कहीं-कहीं वे भावबोध में बाधक भी हो जाते हैं और कहीं-कहीं तटस्थ रह जाते हैं; अर्थात् न तो भाव-बोध में उत्कर्ष ही लाते हैं न अपकर्ष ही । यह तो हुआ काव्य में अर्थबोध के उत्कर्ष-साधन की दृष्टि से अलङ्कारों की प्रकृति पर विचार । भाषा की दृष्टि से
१. इह दोषगुणालङ्काराणां शब्दार्थ गतत्वेन यो विभागः स अन्वय
व्यतिरेकाभ्यामेव व्यवतिष्ठते ।-मम्मट,काव्यप्रकाश हपृ. २११-१२ २. उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽङ्गद्वारेण जातुचित् ।
हारादिवदलङ्कारास्तेऽनुप्रासोपमादयः ॥-वही, ८, ६७