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________________ ७७० ] अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण - में क्या औचित्य होगा ? शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार की प्रकृति की परीक्षा करने से भी यह बात स्पष्ट हो जाती है कि न तो शब्दालङ्कार ही सर्वथा अर्थनिरपेक्ष होते हैं और न अर्थालङ्कार ही सर्वथा शब्दनिरपेक्ष । यमक में सार्थक पद की आवृत्ति होने पर आवृत्त पद में अर्थ -भेद आवश्यक माना जाता है। लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ की तात्पर्य-भेद से आवृत्ति आवश्यक मानी जाती है । अर्थालङ्कारों में भी समासोक्ति में अन्यार्थ - व्यञ्जक समान विशेषण पद के प्रयोग का विचार, परिकर में साभिप्राय विशेषण के प्रयोग का विचार, प्रश्नोत्तर में समान वाक्य से प्रश्न एवं उत्तर के बोध का विचार तथा दीपक में स्थान- नियम से उभयार्थ द्योतक पद के प्रयोग का विचार इस प्रमाण हैं कि अर्थालङ्कार शब्द- निरपेक्ष अर्थ मात्र के ही अलङ्कार नहीं हैं; उनकी प्रकृति शब्द - सापेक्ष भी है । उपमा के एक भेद समानोपमा की प्रकृति तो अर्थ की अपेक्षा शब्द पर ही अधिक निर्भर है । 'सकलकलं पुरं चन्द्र इव' में केवल समान विशेषण के आधार पर चन्द्रमा और नगर में उपमानोपमेय भाव की कल्पना के मूल में शब्दमात्र का चमत्कार है । अन्यथा नगर और चन्द्रमा में क्या साम्य ? न रूप का, न प्रभाव का। दोनों में साम्य केवल इतना है कि दोनों का विशेषण समान है— दोनों सकलकल हैं, भले ही दोनों के पक्ष में 'सकलकल' विशेषण का अर्थ अलग-अलग हो । नगर 'सकलकल' है इसलिए कि वह कलकल अर्थात् कोलाहल से युक्त है और चन्द्रमा 'सकलकल' है इस लिए कि वह अपनी सकल कलाओं से युक्त है । स्पष्टतः 'सकलकल' विशेषण की समता के आधार पर नगर की चन्द्रमा के साथ उपमा में उस विशेषण की अर्थात समता का विचार नहीं किया गया है, केवल शब्दगत समता के ही आधार पर उपमानोपमेय भाव की कल्पना की गयी है । स्पष्ट है कि अलङ्कारों का शब्दार्थ विभाग तात्त्विक नहीं, व्यावहारिक मात्र है । अतः, अलङ्कारों के शब्दगत तथा अर्थगत विभाजन को देखकर यह मान लेने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए कि यह विभाजन शब्द और अर्थ के पार्थक्य की धारणा पर आधृत है । मम्मट ने इस प्रकार के विभाजन का मूल सिद्धान्त स्पष्ट करते हुए यह मान्यता व्यक्त की है कि अलङ्कार में शब्द और अर्थ; दोनों का विचार रहने पर भी अन्वय और व्यतिरेक के सिद्धान्त के आधार पर शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार का निर्धारण किया जाता है । जहाँ अलङ्कारविशेष के अस्तित्व के लिए शब्द विशेष का प्रयोग आवश्यक हो और उस शब्द के स्थान पर उसका पर्यायवाची शब्द रखने पर अलङ्कार का
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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