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________________ ७७२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण शब्दार्थ बोध में अलङ्कार की उपयोगिता पर विचार कर लेना वाञ्छनीय होगा। इस सन्दर्भ में यह निर्देश कर देना आवश्यक है कि जहां एक ओर भारतीयअलङ्कार-शास्त्र में शब्दार्थ के उपस्कार की दृष्टि से अनेक अलङ्कारों की प्रकृति पर विचार किया जा रहा था, वहाँ दूसरी ओर दर्शन और व्याकरण में केवल शब्दार्थ बोध की दृष्टि से भी अलङ्कार के मूलभूत तत्त्व पर विचार किया जा रहा था। उपमा, महत्त्व की दृष्टि से, अलङ्कारों में प्रथम है। अनेक आचार्यों ने-जिनमें वामन, अभिनव, अप्पय्य दीक्षित जैसे समर्थ आचार्य भी सम्मिलित है-समग्र अलङ्कार-प्रपञ्च को उपमा नटी का ही विलास मान लिया है।' शृङ्खला आदि पर आधृत अलङ्कारों की सत्ता स्वीकृत हो जाने पर भी उपमा की प्रधानता सर्वमान्य है। दर्शन में उपमान को प्रमा का-तत्त्वज्ञान का-साधन मानकर उसके स्वरूप का विवेचन किया गया है। व्याकरण में भी ज्ञान के साधन के रूप में ही उपमान का निरूपण किया गया है। उपमान ज्ञात वस्तु से सादृश्य के आधार पर अज्ञात को जानने में सहायक होता है। गवय (नील गाय) गाय जैसी होती है, यह कहने से गाय से परिचित व्यक्ति उसके सदृश गवय का ज्ञान प्राप्त कर लेता है। ऐसी स्थिति में जब वह पहली बार गवय को देखता है तो गाय से सादृश्य के कारण बिना बताये भी वह गवय को पहचान लेता है। अर्थ-बोध में उपमान बहुत सहायक हुआ करता है। कभी-कभी तो उपमान अर्थ-बोध का अनिवार्य आधार भी बन जाता है-विशेषतः तब, जब ज्ञेय वस्तु अमूर्त होती है। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि वह किसी अपरिचित नवीन वस्तु को अपनी परिचित वस्तु के सन्दर्भ में ही जानने का प्रयास करता है। जब किसी को कोई व्यक्ति किसी नवीन वस्तु के विषय में बताना चाहता है तो वह यह प्रयास करता है कि वह वस्तु को इस प्रकार उपस्थित करे कि वह उस व्यक्ति की किसी ज्ञात वस्तु के मेल में हो और इस प्रकार उसे ज्ञात वस्तु से सादृश्य आदि के आधार पर नवीन वस्तु को समझने १. (क) प्रतिवस्तुप्रभृतिरुपमाप्रपञ्चः-वामन, काव्यालं० सूत्र ४, ३, १ (ख) उपमाप्रपञ्चश्च सर्वोऽलङ्कार इति विद्भिः प्रतिपन्नमेव । -ना० शा० अ० भा० पृ० ३२१ (ग) उपमैका शैलूषी सम्प्राप्ता चित्रभूमिकाभेदान् । रञ्जयति काव्यरङ्ग नृत्यन्ती तद्विदां चेतः ॥ -अप्पय्य दीक्षित, चित्रमीमांसा पृ० ६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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