SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १२६ व्याजस्तुति भामह की तरह वामन भी निन्दा के व्याज से की जाने वाली स्तुति अर्थात् स्तुतिपर्यवसायिनी निन्दा की उक्ति में व्याजस्तुति अलङ्कार मानते हैं।' तुल्ययोगिता तुल्ययोगिता अलङ्कार के स्वरूप के विषय में भी वामन भामह की मान्यता से सहमत हैं। आक्षेप वामन ने आक्षेप अलङ्कार के किञ्चित् नवीन स्वरूप की कल्पना की है। भामह की तरह वे भी प्रतिषेध की उक्ति को आक्षेप का विधायक तत्त्व अवश्य मानते हैं ; किन्तु अलङ्कारों में सर्वत्र उपमानोपमेय के सद्भाव का आग्रह रखने के कारण वे केवल उपमान के आक्षेप में उक्त अलङ्कार की सत्ता स्वीकार करते हैं। आक्षेप शब्द के दूसरे अर्थ के आधार पर आक्षेप अलङ्कार का दूसरा लक्षण यह माना गया है कि उपमेय-मात्र के कथन से उपमान की आक्षेप से प्रतिपत्ति होने में भी आक्षेप अलङ्कार होता है। आक्षेप का यह स्वरूप भामह आदि के समासोक्ति अलङ्कार के स्वरूप से मिलता-जुलता है, जिसमें उपमेय उक्त होता है और उपमान गम्य ।। सहोक्ति वामन का सहोक्ति अलङ्कार भामह आदि आचार्यों के तत्संज्ञक अलङ्कार से अभिन्न स्वभाव का है। १. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३, ३१ तथा वामन, काव्यालं० सू०, ४, ३, २४ २. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २६ तथा भामह, काव्यालं० ३, २७ ३. उपमानाक्षेपश्चाक्षेपः।-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २७ ४. द्रष्टव्य-काव्यालं० सू० ४, ३, २७ की वृत्ति तथा भामह, काव्यालं. २,७९ ५. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं. सू० ४,३,२८ तथा भामह, काव्यालं.
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy