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१२८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण निदर्शना
वामन की निदर्शना-अलङ्कार-धारणा भामह की धारणा से अभिन्न है ।'
अर्थान्तरन्यास
वामन के अर्थान्तरन्यास अलङ्कार का स्वरूप भी भामह के अर्थान्तरन्यास से मिलता-जुलता ही है।
व्यतिरेक
भामह के व्यतिरेक सम्बन्धी मत का अनुसरण करते हुए वामन ने भी उपमान से उपमेय के आधिक्य-वर्णन में व्यतिरेक-अलङ्कार माना है। 3
विशेषोक्ति
वामन की विशेषोक्ति-धारणा प्राचीन आचार्यों की धारणा से किञ्चित् भिन्न है। यह भेद उसमें उपमा के स्वरूप के मिश्रण के कारण आया है। भामह तथा वामन की विशेषोक्ति-परिभाषा में इस अंश में साम्य है कि दोनों ने इसमें एक गुण की हानि की कल्पना की है, किन्तु दोनों की मान्यता में वैषम्य यह है कि जहाँ भामह एक गुण की हानि के स्थल में इसमें अन्य गुण के सद्भाव की कल्पना पर बल देते हैं, वहाँ वामन इसे उपमा-प्रपञ्च सिद्ध करने के लिए उस स्थल में साम्य की पुष्टि वाञ्छनीय मानते हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि भामह की विशेषोक्ति-धारणा में ही सादृश्य की कल्पना को मिला कर वामन ने विशेषोक्ति के इस नवीन रूप का सृजन किया है।
१. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २० तथा भामह, काव्यालं.
२. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २१ तथा भामह, काव्यालं०
२,७१-७३ ३. द्रष्टव्य-वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, २२ तथा भामह, काव्यालं०
४. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० ३, २३ तथा वामन, काव्यालं० सू०,
४, ३, २३