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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १२७ वामन ने उसमें अर्थान्तरन्यास अलङ्कार के तत्त्व को अस्वीकार कर दिया है । वे परिवृत्ति में सदृश या असदृश वस्तुओं का परिवर्तन वाञ्छनीय मानते हैं । क्रम या यथासंख्य क्रम अलङ्कार के सम्बन्ध में वामन की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों की धारणा से किञ्चित् भिन्न है । इस भेद का कारण उसमें उपमा के तत्त्व का समावेश है । क्रम को भी उपमा-प्रपञ्च के भीतर सिद्ध करने के लिए वामन ने प्रस्तुत एवं अप्रस्तुत वस्तुओं का क्रम से सम्बन्ध- प्रदर्शित करने में ही क्रम अलङ्कार स्वीकार किया है । पूर्ववर्ती आचार्यों ने क्रम या यथासंख्य अलङ्कार की परिभाषा में उपमान, उपमेय का उल्लेख नहीं किया था । उनके मतानुसार पूर्वकथित अर्थ का पश्चात् कथित पदार्थ से क्रमिक अन्वय-मात्र यथासंख्य या क्रम अलङ्कार के विधान के लिए पर्याप्त है । भामह तथा उनके मतानुयायी उद्भट ने तो यथासंख्य- परिभाषा में 'असधर्मणाम्' विशेषण का प्रयोग कर यह स्पष्ट कर दिया था कि यथासंख्य में उपमान- उपमेय का क्रम होना अपेक्षित नहीं है । 3 स्पष्ट है कि वामन ने वस्तुवर्णन के क्रम की धारणा पूर्ववर्ती आचार्यों से लेकर उसमें उपमान- उपमेय की धारणा को मिला कर क्रम के इस नवीन स्वरूप की कल्पना कर ली है । दीपक भामह के मतानुसार ही वामन ने आदिदीपक, मध्यदीपक तथा अन्तदीपक; इन तीन दीपक-भेदों का वर्णन किया है । वामन के दीपक अलङ्कार का सामान्य लक्षण उद्भट के दीपक-लक्षण से अभिन्न है । * १. द्रष्टव्य — काव्यालं० सू० ४, ३, १६ तथा उद्भट, काव्यालं ० सार. सं०, ५, ३१ २. उपमेयोपमानानां क्रमसम्बन्धः क्रमः । — वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, १७ ३. द्रष्टव्य - भामह, काव्यालं०, २, ८९ तथा उद्भट, काव्यालं ० सार सं० ३, २, ४. द्रष्टव्य – वामन, काव्यालं० सू० ४, ३, १८-१९ तथा उद्भट, काव्यालं० सार सं० १, २८
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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