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________________ १३० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण समाहित ___ वामन ने समाहित अलङ्कार के सम्बन्ध में सर्वथा नवीन मान्यता प्रकट की है। भामह और दण्डी ने आरब्ध कार्य में अनायास साधक की प्राप्ति में समाधि अलङ्कार माना था ।' उद्भट ने उसका सम्बन्ध रस, भाव आदि की शान्ति से जोड़ दिया ।२ उक्त मतों में औपम्य के तत्त्व का अभाव था। अतः वामन ने किसी मत को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने यह मन्तव्य व्यक्त किया है कि जहाँ किसी वस्तु का सादृश्य उपमेय से दिखाना अभिप्रेत हो वहाँ यदि उपमेय की तद्रूपता प्राप्ति (उपमेय का उपमान के रूप को प्राप्त कर लेना) का वर्णन किया जाय तो समाहित अलङ्कार माना जाता है। इस अलङ्कार के स्वरूप-निर्धारण में वामन ने मनोवैज्ञानिक तथ्य का प्रतिपादन किया है। मन में जिस वस्तु का ध्यान हो उसके समान वस्तु को देख कर ध्यात वस्तु का अनुभव तीव्र हो जाता है और कभी-कभी ऐसा प्रतीत होने लगता है कि मनोगत वस्तु ही प्रत्यक्ष हो गयी हो। वामन ने उक्त अलङ्कार का जो उदाहरण दिया है उसमें उर्वशी के ध्यान में डूबे हुए पुरूरवा के लिए लता ही उर्वशी बन जाती है। यह भ्रमात्मक ज्ञान से भिन्न है; क्योंकि पुरूरवा को लता के पल्लव आदि का ज्ञान है। लता का मेघ की जलधारा से धौत पल्लव उसके सामने उर्वशी के अश्र -प्रक्षालित अधर के रूप में प्रकट हो रहा है। स्मृति की तीव्र दशा में पूर्वानुभूत पदार्थ अपने सदृश अन्य अधिकरण में मूर्त हो गया है। इसमें प्रस्तुत पर अप्रस्तुत के आरोप (अर्थात् रूपक) का तत्त्व भी अवश्य है; किन्तु इस भेद के साथ कि रूपक में प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत के भेद से वक्ता परिचित रहता है और दोनों में सादृश्यातिशय-निरूपण के लिए प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप करता है। समाहित में प्रस्तुत ही अप्रस्तुत के रूप में बदल जाता है। वक्ता को दोनों में अभेद की प्रतीति होने लगती है। भरत ने सारूप्य नामक लक्षण के इससे मिलते-जुलते स्वरूप की कल्पना की थी। सारूप्य में यह कहा गया है कि समान रूप वाली वस्तु को देख कर उसी के सदृश अन्य वस्तु का ज्ञान हो १. द्रष्टव्य-प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ४४, पाद टिप्पणी सं० ३ २. द्रष्ट व्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ४, १४ ३. यत्सादृश्यं तत्सम्पत्तिः समाहितम् । -वामन, काव्यालं० सू० ४,३,२९ ४. तन्वी मेघजलापल्लवतया'द्रष्टव्य, वही, ४, ३ पृ० २७५
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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