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________________ १७२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण भेदों का स्रोत-सन्धान अभीष्ट है। 'वक्रोक्तिजीवित' में विवेचित अलङ्कारों को उनके नाम-रूप का प्राचीन अलङ्कारों से साम्य-वैषम्य की दृष्टि से निम्नलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है(क) पूर्ववर्ती आचार्यों के लक्षण का. खण्डन कर कुन्तक के द्वारा उद्भावित नवीन स्वरूप वाले अलङ्कारः-इस वर्ग में रसवत्, दीपक, सहोक्ति आदि अलङ्कार आते हैं। इनके नाम प्राचीन हैं, किन्तु स्वरूप नवीन । . (ख) उपमा में अन्तभुक्त अलङ्कारः–प्रतिवस्तूपमा, उपमेयोपमा, तुल्य योगिता, अनन्वय, परिवृत्ति, तथा निदर्शना का उपमा से पृथक् अस्तित्व नहीं मान कर कुन्तक ने उसीमें उनका अन्तर्भाव स्वीकार किया है। (ग) श्लेष में अन्तर्भूत अलङ्कारः–कुन्तक ने समासोक्ति अलङ्कार का अन्तर्भाव श्लेष में मान लिया है। (घ) शब्द-भेद से प्रस्तुत प्राचीन लक्षण वाले अलङ्कारः-पर्यायोक्त, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, उपमा, श्लेष, दृष्टान्त, अर्थान्तरन्यास, आक्षेप, विभावना, सन्देह, अपह्नति, संसृष्टि, रूपक तथा अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कारों के स्वरूप के सम्बन्ध में कुन्तक प्राचीन आचार्यों से सहमत हैं। उन्होंने शब्द-भेद से उक्त अलङ्कारों के प्राचीन लक्षणों की ही अवतारणा की है। व्यतिरेक अलङ्कार के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में कुन्तक प्राचीन आचार्यों से सहमत हैं; किन्तु उन्होंने उसके कुछ नवीन भेदों की उद्भावना कर ली है। (ङ) अलङ्कार्य के रूप में स्वीकृत प्राचीन अलङ्कार:—कुन्तक ने स्वभावोक्ति, प्रेय, ऊर्जस्वी उदात्त तथा समाहित के अलङ्कारत्व का खण्डन कर उन्हें अलङ्कार्य के रूप में स्वीकार किया है । आशीः भी उनके अनुसार अलङ्कार्य ही है। (च) चमत्काराभाव के कारण अस्वीकृत अलङ्कार:-यथासंख्य आदि अनेक अलङ्कारों का अस्तित्व कुन्तक ने अस्वीकार कर दिया। उनकी मान्यता है कि जिन अट्ठाईस अलङ्कारों का विवेचन 'वक्रोक्ति १. कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित पृ० ४३६-४४६ २. वही, पृ० ४४६-४५३.
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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