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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १७३ जीवित' में किया गया है, उनके अतिरिक्त जिन अलङ्कारों की गणना प्राचीन अलङ्कार-ग्रन्थों में की गयी है, उनमें से कुछ तो इन्हीं अट्ठाईस में अन्तर्भुक्त हैं तथा कुछ शोभाहीन होने के कारण अलङ्कार नहीं हैं । विवेचित अट्ठाईस में से भी कुछ का ही अलङ्कारत्व कुन्तक को मान्य है । विशेषोक्ति कहीं अन्य अलङ्कार में अन्तर्भूत हो जाती है, कहीं वह अलङ्कार्य ही बन जाती है । हेतु, सूक्ष्म और लेश उक्तिगत वत्रता के अभाव में अलङ्कार नहीं माने जा सकते । इन तीनों के सम्बन्ध में भामह ने भी यही मन्तव्य प्रकट किया था । कुन्तक ने उनके स्वभाव - मात्र की रमणीयता की दृष्टि से उन्हें अलङ्कार्य ही स्वीकार किया है । उपमा-रूपक अलङ्कार की स्वतन्त्र सत्ता अपन्न नहीं । निष्कर्षतः, कुन्तक के मतानुसार निम्नलिखितः अलङ्कारों का अस्तित्व ही स्वीकार्य है— (१) उपमा (२) रूपक, ( ३ ) श्लेष, (४) व्यतिरेक, (५) अप्रस्तुतप्रशंसा, (६) पर्यायोक्ति, (७) उत्प्र ेक्षा, (८) अतिशयोक्ति, (६) दृष्टान्त, (१०) अर्थान्तरन्यास, (११) आक्षेप, (१२) विभावना, (१३) सन्देह, (१४) अपह्न ुति (१५) रसवत्, (१६) दीपक, (१७) सहोक्ति । कुन्तक ने अट्ठाईस अलङ्कारों का उल्लेख कर उनके अलङ्कारत्व का परीक्षण किया है । उनमें से कुछ के अलङ्कारत्व का खण्डन कर स्वमतानुसार स्वीकार्य अलङ्कारों का स्वरूप विवेचन किया है। उनकी मान्यता है कि पूर्ववर्ती आलङ्कारिकों ने इन अट्ठाईस अलङ्कारों के अतिरिक्त जिन अलङ्कारों का उल्लेख किया है, उनमें से कुछ तो इन्हीं अलङ्कारों में अन्तर्भुक्त हो जाते और शेष शोभाहीन होने के कारण अलङ्कार के रूप में स्वीकार नहीं किये जा सकते । पूर्ववर्ती आचार्यों के कुछ अलङ्कारों को अलङ्कार नहीं मान कर अलङ्कार्य की कोटि में रखने के कारण भी वक्रोक्तिजीवितकार ने अलङ्कार के सन्दर्भ में उन्हें अविवेच्य और अनुल्लेख्य माना है । उदाहरणार्थयथासंख्य शोभाहीन होने के कारण अलङ्कार नहीं । आशीः आशंसनीय अर्थ की प्रमुखता के कारण अलङ्कार्य है । विशेषोक्ति कहीं अलङ्कार्य बन जाती है तथा कहीं अन्य अलङ्कार में अन्तर्भूत हो जाती है । हेतु, सूक्ष्म और लेश में अलङ्कारत्व-विधायक उक्ति-गत वत्रता का अभाव रहता है । अतः, उन्हें अलङ्कार नहीं माना जा सकता । स्वभावमात्र रमणीय होने के कारण उन्हें
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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