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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १७१ आचार्य कुन्तक भारतीय काव्यशास्त्र में वक्रोक्ति-प्रस्थान के प्रवर्तक आचार्य कुन्तक ने 'वक्रोक्तिजीवित' में काव्य के अलङ्कारों का विवेचन कुछ स्वतन्त्र रीति से किया है। उनका मुख्य प्रतिपाद्य उक्ति-की वक्रता है, जिसे वे काव्य की आत्मा मानते थे। उक्तिगत वक्रता या चमत्कार को काव्य-सर्वस्व मानने के कारण अलङ्कार के सम्बन्ध में अलङ्कार-सम्प्रदाय के आचार्यों से उनका दृष्टि-भेद होना स्वाभाविक था। अलङ्कारवादी नहीं होने पर भी कुन्तक ने अलङ्कार-विवेचन में जो महनीय योगदान दिया है, वह साहित्य-समीक्षा के पाठकों के लिए आनन्दमय विस्मय का विषय है । इस क्षेत्र में उनकी सबसे महत्त्वपूर्ण उपलब्धि अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेदाभेद-निरूपण है । इस विषय में उनकी मान्यता सर्वथा मौलिक और तर्कपुष्ट है। हमने कुन्तक के अलङ्कार्यालङ्कार-विवेक पर प्रथम अध्याय में विचार किया है। प्रस्तुत सन्दर्भ में हमारा उद्देश्य 'वक्रोक्तिजीवित' में विवेचित अलङ्कारों का स्रोत-सन्धान है। ___कुन्तक ने अलङ्कारों की संख्या तथा उनके भेदोपभेदों के अनावश्यक प्रसार को अग्राह्य माना है। उनकी प्रवत्ति तत्त्व-निरूपण की गहराई में उतरने की थी, पूर्व निरूपित तथ्य के भदीकरण की नहीं। फलतः उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा स्वीकृत अलङ्कारों की संख्या में पर्याप्त काट-छाँट कर दी है। 'वक्रोक्तिजीवित' में प्राचीन आचार्यों के कुछ अलङ्कारों के अलङ्कारत्व का खण्डन किया गया है, कुछ अलङ्कारों का नाम्ना उल्लेख भी नहीं किया गया है, कुछ अलङ्कारों के प्रधान स्वरूप तो स्वीकृत हैं; किन्तु उनके भेदोपभेदों को अस्वीकार कर दिया गया है तथा कुछ प्राचीन अलङ्कारों के नवीन स्वरूप की उद्भावना की गयी है । कुन्तक ने काव्यालङ्कार के किसी नवीन व्यपदेश की उद्भावना नहीं की है। उन्होंने कुछ प्राचीन नामधेय अलङ्कारों के नवीन स्वरूप की कल्पना अवश्य की है। उदाहरणार्थ; रसवत्, दीपक आदि अलङ्कारों के स्वरूप के सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों की मान्यता का खण्डन कर कुन्तक ने उनकी नवीन परिभाषाए दी हैं। कुछ अलङ्कारों के सामान्य स्वरूप का विवेचन प्राचीन आचार्यों के मतानुरूप करने पर भी कुन्तक ने उनके कुछ नवीन भेदों की कल्पना कर ली है। व्यतिरेक आदि के भेद इस दृष्टि से द्रष्टव्य हैं। प्रस्तुत सन्दर्भ में प्राचीन अभिधान वाले अलङ्कारों के कुन्तकप्रदत्त नवीन लक्षणों तथा उनके द्वारा कल्पित प्राचीन अलङ्कारों के नवीन
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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