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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ ६३ कल्पना का आधार भरत की लक्षण-धारणा आदि है। कुछ भेद पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कार-भेदों के आधार पर भी कल्पित हैं। उदाहरणार्थसंशयोपमा, श्लेषोपमा, तुल्ययोगोपमा आदि उपमा-भेद; श्लिष्टरूपक, उपमार रूपक, रूपक-रूपक आदि रूपक-भेद तथा श्लिष्टाक्षेप, संशयाक्षेप, अर्थान्तराक्षेप आदि आक्षेप-भेद मूल अलङ्कार में तत्तदलङ्कारों के तत्त्वों के योग से कल्पित हैं। कुछ अलङ्कार-भेदों के स्वरूप की नूतन उद्भावना का श्रेय दण्डी को अवश्य मिलना चाहिए। यमक के श्लोकाभ्यास, उपमा के नियम, रूपक के विषम, श्लेष के नियामक आदि भेद की कल्पना में दण्डी की मौलिकता स्पष्ट है। (च) भामह के स्वतन्त्र अलङ्कार अन्य अलङ्कार में या उसके भेद में अन्तभुक्त-भामह का अनुप्रास अपनी स्वतन्त्र सत्ता खोकर यमक में ही विलीन हो गया है। ससन्देह उपमा के एक भेद के रूप में तथा उपमा-रूपक रूपक के भेद के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। (छ) पूर्ववर्ती आचार्यों के अलङ्कार-लक्षण किञ्चित् भेद से स्वीकृतभाविक, परिवृत्ति, तुल्ययोगिता आदि अलङ्कार इस वर्ग में रखे जा सकते हैं। हम देख चुके हैं कि परिवृत्ति, तुल्ययोगिता आदि की कल्पना में भामह के मत को अंशतः स्वीकार करने पर भी दण्डी ने उन अलङ्कारों के स्वरूप में अपनी ओर से भी कुछ जोड़ा है। भाविक का स्वरूप भी भामह के भाविक से थोड़ा भिन्न है। इसकी कल्पना में भरत की गुण-धारणा का प्रभाव स्पष्ट है। ___ दण्डी ने स्वयं इस तथ्य को स्वीकार किया है कि अलङ्कार की विविधता की कल्पना का बीज पूर्ववर्ती आचार्यों की कृतियों में ही निहित है।' स्पष्ट है कि भरत के 'नाट्यशास्त्र' में उल्लिखित अलङ्कार, लक्षण आदि का जो स्वरूप भामह के 'काव्यालङ्कार' में विभिन्न अलङ्कार-प्रपञ्च के रूप में विकसित हुआ था, उसी को दण्डी के 'काव्यादर्श' में थोड़ा और विकास प्राप्त हुआ। १. किन्तु बीजं विकल्पानां पूर्वाचार्यः प्रदर्शितम् । .. तदेव परिसंस्कत्तु मयमस्मत्परिश्रमः ॥-दण्डी, काव्यादर्श, २,२
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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