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________________ ६५० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अर्थात् गुण के तिरस्कार में तिरस्कार अलङ्कार माना है।' दैन्य को भगवद्भक्ति के अनुकूल मानकर दोष-रूप में प्रसिद्ध दैन्य की अभ्यर्थना अनुज्ञा का उदाहरण है तो समृद्धि को ईशभक्ति में बाधक समझ कर गुण-रूप में प्रसिद्ध समृद्धि की प्राप्ति की अनिच्छा तिरस्कार अलङ्कार का उदाहरण है। तिरस्कार अन्वर्था संज्ञा है। स्वरूप-विकास की दृष्टि से पण्डितराज की तिरस्कार-धारणा में परिवर्तन की कोई स्थिति नहीं आयी है। मुद्रा ____ भोज ने मुद्रा को शब्दालङ्कार मानकर उसके स्वरूप का निरूपण किया था। उनके अनुसार वक्ता के साभिप्राय वचन का वाक्य में विनिवेश मुद्रा है। अभिप्राय यह कि जहाँ कोई पद, पदांश तथा वाक्य अपने अर्थ का बोध कराने के साथ वक्ता के विशेष अभिप्रेत अर्थ की भी सूचना देते हों, वहाँ मुद्रा अलङ्कार होगा। जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने मुद्रा के इसी रूप को स्वीकार कर उसे अर्थालङ्कार माना है। उनके अनुसार प्रकृत अर्थ का बोध कराने वाले पदों से सूच्य अर्थ को सूचित करना मुद्रा है। नाटकों में प्रकृतार्थपरक पद से किसी विशेष अर्थ की सूचना देने की परिपाटी रही है। उस पद्धति को मुद्रा नाम से ही अभिहित किया जाता रहा है। उस नाट्य-तत्त्व को भोज ने शब्दालङ्कार के रूप में तथा अप्पय्य दीक्षित आदि ने अर्थालङ्कार के रूप में स्वीकार किया है । मुद्रा के स्वरूप की धारणा में एकरूपता ही रही है। रत्नावली रत्नावली की स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में सत्ता, केवल जयदेव तथा उनके मतानुयायी अप्पय्य दीक्षित को मान्य है। इस अलङ्कार की परिभाषा में १. एवं दोषविशेषानुबन्धाद्गुणत्वेन प्रसिद्धस्यापि द्वषस्तिरस्कारः । -जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ८०७. २. साभिप्रायस्य वाक्ये यद्वचसो विनिवेशनम्।। ____ मुद्रां तां मुत्प्रदायित्वात्काव्यमुद्राविदो विदुः ॥ -भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, २, ४०. ३. सूच्यार्थसूचनं मुद्रा प्रकृतार्थपरैः पदैः । -अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १३६.
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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