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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ६५१ कहा गया है कि प्रकृत अर्थों का क्रमिक विन्यास रत्नावली है।' अर्थात्, प्रसिद्ध सहपाठ वाले पदार्थों का क्रम से विनिवेश रत्नावली का लक्षण है । अप्पय्य दीक्षित ने एक जगह यह कहा है कि प्रसिद्ध सहपाठ वाले पदार्थों का प्रसिद्ध क्रम से विनिवेश भी रत्नावली है। इससे स्पष्ट है कि प्रसिद्ध सहपाठ के प्रसिद्ध क्रम से विनिवेश के अतिरिक्त स्थल में भी रत्नावली हो सकती है। अतः, 'कुवलयानन्द' के टीकाकार का यह निष्कर्ष उचित ही है कि प्रसिद्ध सहपाठ वाले पदार्थों का न्यास ही रत्नावली का लक्षण है। ऐसे पदार्थों के क्रम से विन्यास तथा अक्रम-विन्यास के आधार पर रत्नावली के दो भेद माने जा सकते हैं। उदाहरण के लिए ईश्वर के दश अवतार का सहपाठ प्रसिद्ध है। पुराणों में वर्णित अवतार-क्रम से सभी अवतारों का एकत्र विन्यास भी हो सकता है औ: क्रम के भी। दोनों को रत्नवली का उदाहरण माना जायगा। उद्योतकार ने रत्नावली के स्वतन्त्र अस्तित्व का खण्डन करते हुए कहा है कि उसके उदाहरण में वर्ण्य का उपस्कार प्रसिद्ध सहपाठ का क्रम-विन्यास नहीं करता, वह उपस्कार रूपक आदि अन्य अलङ्कारों से होता है। अतः, ऐसे उदाहरण में रत्नावली नामक स्वतन्त्र अलङ्कार की कल्पना आवश्यक नहीं है। पण्डितराज जगन्नाथ आदि को भी रत्नावली का स्वतन्त्र अस्तित्व मान्य नहीं है । अस्तु, स्वरूप-विकास की दृष्टि से उसका एक ही रूप कल्पित हुआ है, जिसकी परीक्षा ऊपर की जा चुकी है। लोकोक्ति जयदेव तथा अप्पय्य दीक्षित ने लोकोक्ति को भी एक स्वतन्त्र अलङ्कार माना है। इस अलङ्कार के लक्षण में कहा गया है कि जहाँ लोकवाद अर्थात् ' लोक-प्रचलित उक्ति का अनुकरण काव्य में हो, वहाँ लोकोक्ति अलङ्कार होता १. क्रमिकं प्रकृतार्थानां न्यासं रत्नावली विदुः । —कुवलयानन्द, १४० २. प्रसिद्धसहपाठानां प्रसिद्धक्रमानुसरणेऽप्येवमेवालङ्कारः । -वही, वृत्ति, पृ० १५६ ३. प्रसिद्धसहपाठानामर्थानां न्यसनं रत्नावलीति सामान्यलक्षणम् । -वही, टीका, पृ० १५६.. ४. उद्योतकार का यह मत काव्यप्रकाश की बालबोधिनी टीका में -उद्धृत, पृ० ७४१
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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