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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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कार्याभाव का वर्णन होता है; पर विचार करने पर वस्तुतः कार्याभाव से कारण की समग्रता ही बाधित होती है। प्रत्यक्षतः समग्र कारण की सत्ता का कथन होने पर भी कार्योत्पत्ति का अभाव प्रकारान्तर से कारण की बाधा प्रतीत कराता है । अतः, विशेषोक्ति में तत्त्वतः कारण-मात्र की सत्ता की बाधा रहती है, जबकि विरोधाभास में दो वस्तुओं में प्रातिभासिक विरोध दिखाये जाने से दोनों पदार्थों में अन्योन्यबाधकता रहती है । निष्कर्षतः, विरोधाभास में दो वस्तुओं में प्रातिभासिक विरोध तथा तात्त्विक अविरोध रहता है। उसमें अन्योन्यबाधकता अनुप्राणक रहती है, जबकि विशेषोक्ति में एक ही अर्थ की बाधा रहती है, अन्योन्यबाधकता नहीं।' यही दोनों का मुख्य भेद है। अपह नुति और सामान्य
अपह्नति में एक वस्तु का निषेध तथा दूसरी वस्तु का स्थापन होता है; 'पर सामान्य में दो वस्तुओं के विशेष का बोध न होने में सामान्य की प्रतीति होती है। अलङ्कारसर्वस्वकार ने एक के निषेध तथा दूसरे की स्थापना को अपह्नति का व्यावर्तक माना है और इसी आधार पर सामान्य तथा अपह्नति का भेद-निरूपण किया है। भाविक और भ्रान्तिमान्
भाविक में भूत और भावी अर्थ का प्रत्यक्ष रूप में वर्णन होता है। अलङ्कारसर्वस्वकार ने कहा है कि इसे भ्रान्तिमान् से अभिन्न समझने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए; क्योंकि भाविक में भूत और भावी अर्थ का भूत और भावी अर्थ के रूप में ही उसके यथार्थ रूप में ही ज्ञान होता है, जबकि भ्रान्तिमान में किसी वस्तु का उससे भिन्न वस्तु के रूप में-अयथार्थ रूप मेंज्ञान होता है।
१. अन्योन्यन्यबाधकत्वानुप्राणिताद् विरोधालङ्काराद्भेदः । ..."विशेषोक्तौ कार्याभावेन कारणसत्ताया एव बाध्यमानत्वमुन्नेयम् ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १५२ २. न चेदम् ( सामान्यम् ) अपह्न तिः । किञ्चिन्निषिध्य कस्यचिप्रतिष्ठा
पनात् ।-वही, पृ० २१० ३. न चेदं (भाविक) भ्रान्तिमान् । भूतभाविनो भूतभावितयैव प्रकाश
नात् ।—वही, पृ० २१०