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७२२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण अर्थ वक्ता को विवक्षित होता है और श्लेष से श्रोता दूसरे अर्थ की योजना कर लेता है। अतः, इस वक्रोक्ति में वाक्य के अनेक अर्थ की योजना के लिए श्लेष का सहारा आवश्यक है। इस अंश में श्लेष से श्लेष-वक्रोक्ति की समता है; पर दोनों का भेद यह है कि जहाँ श्लेष में वक्ता को सभी अर्थ विवक्षित रहते हैं, वहाँ वक्रोक्ति में उसे कुछ और अर्थ विवक्षित रहता है और उसके अभिमत अर्थ से भिन्न अर्थ की योजना श्रोता कर लेता है। स्मरण और भ्रान्तिमान् ।
भ्रान्ति में भी यथार्थ वस्तु पर उसके सदृश स्मर्यमाण अन्य वस्तु का आरोप हो जाता है। स्मृति में एक वस्तु को देखकर सादृश्य आदि के कारण अन्य वस्तु की स्मृति हो आती है। दोनों में भेद यह है कि भ्रान्ति में केवल स्मर्यमाण का एककोटिक ज्ञान रहता है; पर स्मरण में प्रकृत वस्तु का भी यथार्थ ज्ञान रहता है और स्मर्यमाण वस्तु का भी। दूसरा भेद यह है कि स्मरम सादृश्येतर सम्बन्ध से भी हो सकता है पर भ्रम केवल सादृश्य से ही सम्भव होता है। ( ध्यातव्य है कि कुछ आचार्यों ने केवल सादृश्यमूला स्मृति को ही स्मरणालङ्कार माना है; पर अन्य आचार्य सादृश्येतर सम्बन्ध में भी स्मरण मानते हैं )। तुल्ययोगिता और दीपक ___ तुल्ययोगिता तथा दीपक; दोनों में अनेक पदार्थों का एक धर्म से अन्वय दिखाया जाता है; पर दोनों में अन्तर यह है कि तुल्ययोगिता में या तो अनेक वर्ण्य पदार्थों का एक धर्माभिसम्बन्ध दिखाया जाता है या अनेक अप्रस्तुत पदार्थों का; जबकि दीपक में प्रस्तुत और अप्रस्तुत पदार्थों का परस्पर एक धर्माभिसम्बन्ध दिखाया जाता है। तुल्ययोगिता में या तो सभी पदार्थ प्रस्तुत रहते हैं या सभी अप्रस्तुत; पर दीपक में कुछ प्रस्तुत और कुछ अप्रस्तुत पदार्थ रहते हैं। तुल्ययोगिता से दीपक का भेद स्पष्ट करने के लिए उद्भट ने दीपकलाग में 'अन्तर्गतोपमाधर्मा' का उल्लेख किया है ।' तिलक ने विवृति में यह स्पष्ट किया है कि तल्ययोगिता में या तो सभी प्राकरणिक रहते हैं या सभी
१. आदिमध्यान्तविषया: प्राधान्येतरयोगिनः । __अन्तर्गतोपमाधर्मा यत्र तद्दीपकं विदुः।-उद्भट, काव्यालं. सार सं० १,२८