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________________ ११८ ] अलङ्कार- धारणा : विकास और विश्लेषण (च) पूर्ववर्ती आचार्यों की अलङ्कार-धारणा से उद्भट की धारणा का श्रंय सिद्ध करने के लिए विवृतिकार राजानक तिलक ने जो यह मान्यता प्रकट की है कि विभिन्न वर्गों में अलङ्कारों को उपस्थित कर उद्भट ने पूर्ववर्ती आलङ्कारिकों की संकुचित दृष्टि प्रमाणित की है, वह पक्षपातशून्य नहीं है । भामह और उद्भट के अलङ्कार - वर्गों के तुलनात्मक अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वर्गों में अलङ्कारों के उपस्थापन में उद्भट ने भामह की पद्धति का ही अनुगमन किया है । (छ) पुनरुक्तवदाभास - जैसे नवीन अलङ्कार की उद्भावना का श्रेय उद्भट को है । O आचार्य वामन उद्भट के समसामयिक आचार्य वामन ने 'काव्यालङ्कारसूत्र' में इकत्तीस काव्यालङ्कारों के स्वरूप का विवेचन किया है । अलङ्कार के सम्बन्ध में उनकी मान्यता भामह, दण्डी, उद्भट आदि आचार्यों से कुछ भिन्न है । इसका कारण यह है कि रीति-सम्प्रदाय के प्रतिनिधि आचार्य होने के कारण अलङ्कार के प्रति उनका थोड़ा उपेक्षा भाव स्वाभाविक था । वे काव्य में रीति के विधायक गुण की तुलना में अलङ्कार को हेय मानते थे । उन्होंने अर्थालङ्कारों में केवल उन्हीं अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार की है, जिनके मूल में सादृश्य हो । वे सभी अलङ्कारों को उपमा-प्रपञ्च सिद्ध करना चाहते हैं । " अत:, उन्होंने पूर्ववर्ती आचार्यों के उन अलङ्कारों का सद्भाव स्वीकार नहीं किया, जिनका आधार सादृश्य नहीं था । फलतः भामह, दण्डी तथा उद्भट: के पर्यायोक्त, प्रय, रसवत, ऊर्जस्वी, उदात्त, भाविक तथा सूक्ष्म आदि की गणना वामन के काव्यालङ्कार की पंक्ति में नहीं हो पायी । समग्र अलङ्कार - चक्र को उपमा-प्रपञ्च मानने के आग्रह का दूसरा परिणाम यह हुआ कि १. वर्गीर्वगैरलङ्कारोपादानं चिरन्तनालङ्कारकृतामल्पदर्शितां प्रकटयितुम् । - काव्यालं ० सार सं०, विवृति, पृ० १ २. प्रतिवस्तुप्रभृतिरुपमा प्रपञ्चः । वामन, काव्यालं ० सू० ४, ३, १ तथा..... ...शब्दवैचित्र्यगर्भेयमुपमैव प्रपञ्चिता । वही, वृत्ति पृ० २८०, हिन्दी काव्यालं० सू०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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