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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ ११६ पूर्वाचार्यों के भिन्न स्वरूप वाले कुछ अलङ्कारों में उपमानोपमेय भाव की कल्पना कर उनके किञ्चित् नवीन स्वरूप की कल्पना कर ली गयी। प्रस्तुत सन्दर्भ में वामन के नवीन अलङ्कार-लक्षण के स्रोत का अन्वेषण अभिप्रेत है। वामन के इकत्तीस अलङ्कार निम्नलिखित हैं: (१) यमक, (२) अनुप्रास, (३) उपमा, (४) प्रतिवस्तूपमा, (५) समासोक्ति, (६) अप्रस्तुतप्रशंसा, (७) अपह्नति, (८) रूपक, (६) श्लेष, (१०) वक्रोक्ति, (११) उत्प्रेक्षा, (१२) अतिशयोक्ति, (१३) सन्देह, (१४) विरोध, (१५) विभावना, (१६) अनन्वय, (१७) उपमेयोपमा, (१८) परिवृत्ति, (१६) क्रम, (२०) दीपक, (२१) निदर्शन, (२२) अर्थान्तरन्यास, (२३) व्यतिरेक, (२४) विशेषोक्ति, (२५) व्याजस्तुति, (२६) व्याजोक्ति, (२७) तुल्ययोगिता, (२८) आक्षेप, (२६) सहोक्ति, (३०) समाहित और (३१) संसृष्टि । इनमें से आरम्भिक दो ( यमक तथा अनुप्रास ) शब्दालङ्कार हैं तथा शेष अर्थालङ्कार । वामन के अलङ्कारों की नामावली में वक्रोक्ति, व्याजोक्ति तथा 'क्रम' नाम नवीन हैं। क्रम प्राचीन आलङ्कारिकों के यथासंख्य अलङ्कार का ही नवीन अभिधान है। शेष दो अलङ्कार ( वक्रोक्ति और व्याजोक्ति ) तथा उनके व्यपदेश नवीन हैं। आदि आचार्य भरत से लेकर वामन के समकालीन उद्भट तक की रचनाओं में जिन अलङ्कारों का उल्लेख हो चुका था उनमें से कई अलङ्कारों का नामोल्लेख वामन के काव्यालङ्कार में नहीं हुआ है। वे हैं-आशीः, आवृत्ति, प्रेय, पर्यायोक्त, रसवत्, ऊर्जस्वी, उदात्त, भाविक, हेतु, सूक्ष्म, लेश, सङ्कर, स्वभावोक्ति, लाटानुप्रास, पुनरुक्तवदाभास, दृष्टान्त, छेकानुप्रास, काव्यलिङ्ग, उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव । वामन ने उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव को स्वतन्त्र अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं दी; किन्तु उन्हें संसृष्टि के दो भेदों के रूप में स्वीकार कर लिया । हम इस तथ्य पर विचार कर चुके हैं कि उपमा तथा रूपक से पृथक् उपमारूपक की और उपमा तथा उत्प्रेक्षा से अलग उत्प्रेक्षावयव की सत्ता स्वीकार करने में कोई युक्ति नहीं है। छेकानुप्रास तथा लाटानुप्रास अलङ्कारों की अनुप्रास से स्वतन्त्र सत्ता की कल्पना वामन को उचित नहीं जान पड़ी होगी। दृष्टान्त का सर्वप्रथम उल्लेख उद्भट ने किया है। वामन के समय तक उसे बहुत लोकप्रियता नहीं मिल पायी हो, यह सम्भव है । स्वभावोक्ति का अलङ्कारत्व वक्रोक्तिवादी आचार्य स्वीकार नहीं करते थे। हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का भामह ने खण्डन किया था। दण्डी ने उन्हें वाणी का
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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