SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 556
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ५३३ भोज ने साम्य को स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उसका विवेचन किया है। उन्होंने साम्य के सम्बन्ध में रुद्रट की धारणा को ही स्वीकार किया है; पर उसमें उन्होंने दृष्टान्तोक्ति, प्रतिवस्तूक्ति आदि अलङ्कारों को अन्तर्भुक्त मान लिया है। ___ संस्कृत-अलङ्कारशास्त्र के अन्य आचार्यों ने साम्य का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार नहीं किया है। प्रत्यनीक प्रत्यनीक अलङ्कार का स्वरूप-निरूपण सर्वप्रथम रुद्रट ने किया था। उन्होंने इसे औपम्यगर्भ अलङ्कार माना था। उनकी मान्यता थी कि जहां कवि प्रस्तुत के उत्कर्ष-साधन के लिए उसके विजिगीषु के रूप में अप्रस्तुत की योजना करेगा, वहाँ प्रत्यनीक नामक अलङ्कार होगा। उपमान उपमेय से स्पर्धा करता हुआ उसे जीतने की इच्छा से उसका विरोधी बने; यह वर्णन परिणामतः उपमेय का उत्कर्ष ही प्रमाणित करेगा। सामान्यतः, उपमान उपमेय की अपेक्षा अधिक उत्कर्षशाली माना जाता है; पर जहां उपमेय के गुणोत्कर्ष को देख कर उपमान भी उसे गुणों से जीतने की कामना करने लगे और उसका विरोधी बन जाय, वहाँ विशेष भङ्गी से उपमेय के उत्कर्ष का प्रतिपादन होने से अलङ्कारस्व होगा ही। ऐसे अलङ्कार को रुद्रट प्रत्यनीक कहेंगे । रुद्रट ने प्रत्यनीक में तीन बातें आवश्यक मानी हैं—(क) इसमें उपमान को उपमेय का विरोधी कहा जाता है, (ख) उपमान अपने गुणों से उपमेय को जीतने की इच्छा से उसका विरोधी बना हुआ बताया जाता है तथा (ग) उपमान को उपमेय का विजिगीषु या विरोधी बताने में कवि का उद्देश्य उपमेय की उत्तमता का प्रतिपादन होता है ।२ मम्मट के समय प्रत्यनीक के लक्षण में थोड़ा विकास हुआ। मम्मट ने प्रस्तुत अलङ्कार के नाम का यौगिक अर्थ दृष्टि में रखते हुए उसके स्वरूप का व्याख्यान किया। उन्होंने प्रत्यनीक के सम्बन्ध में रुद्रट की मूल धारणा को स्वीकार करने पर भी उसे कुछ स्वतन्त्र रूप से परिभाषित किया है। १. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठा० पृ० ३६६-७६ । २. वक्त मुपमेयमुत्तममुपमानं तज्जिगीषया यत्र । तस्य विरोधीत्युक्त्या कल्प्येत प्रत्यनीकं तत् ।। -रुद्रट, काव्यालं०८,६२
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy