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________________ ५३२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण सोमनाथ, आदि आचार्यों ने भी अन्योक्ति को अप्रस्तुतप्रशंसा से अभिन्न माना है। निष्कर्षतः, अन्योक्ति सारूप्य-निबन्धन-रूप अप्रस्तुतप्रशंसा का ही पर्याय मानी गयी है। यह अन्योक्ति या अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वरूप का चमत्कार है कि उसे काव्य की एक विशेष शैली का रूप प्राप्त हो गया है। अन्योक्ति के इस महत्त्व तथा उसकी लोकप्रियता को देखते हुए ही कुछ विद्वानों ने अन्योक्ति का अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार से स्वतन्त्र अस्तित्व मानने का सुझाव दिया है। पर, अन्योक्ति की प्रसिद्धि को देखते हुए उसे उसके अपने ही मूल रूप से पृथक् मान लेने में कोई युक्ति नहीं। साम्य सर्वप्रथम आचार्य रुद्रट ने साम्य को स्वतन्त्र अलङ्कार मानकर उसके स्वरूप का निरूपण किया। उन्होंने इसे औपम्यमूलक अलङ्कार मानकर उपमा से इसके स्वरूप में कुछ वैशिष्ट्य का आधान करना चाहा। जैसा कि साम्य के नाम से स्पष्ट है, इसमें उपमान और उपमेय की समानता का उल्लेख होता है। दोनों का साम्य या साधर्म्य तो उपमा में भी प्रदर्शित होता है, फिर साम्य का उपमा से भेद क्या होगा ? रुद्रट ने दोनों के भेद-निरूपण के लिए साम्य की परिभाषा में कुछ व्यावर्तक तत्त्व जोड़े हैं। उनके अनुसार उपमान तथा उपमेय के बीच साधारण रूप से रहने वाले गुण, क्रिया, संस्थान आदि से प्रयोज्य अर्थ-क्रिया से जहां उपमेय उपमान की समता प्राप्त कर लेता है, वहाँ साम्य अलवार होता है।' उपमान के साथ उपमेय का ऐसा साम्य कि उपमेय उपमान का-सा कार्य सम्पादित कर दे, साम्य अलङ्कार का स्वरूप है। उसको दूसरे प्रकार की कल्पना करते हुए रुद्रट ने कहा है कि जहाँ उपमेय और उपमान में सर्वथा साम्य दिखा कर भी कवि उपमेय के उत्कर्ष-द्योतन के लिए उनमें वैशिष्ट्य बतावे, वहां भी साम्य अलङ्कार होता है। इस द्वितीय साम्य का स्वरूप भामह आदि के व्यतिरेक के समान है। परवर्ती आचार्यों ने भी ऐसे स्थल में व्यतिरेक ही माना है। १. अर्थक्रियया यस्मिन्नुपमानस्य तिसाम्यमुपमेयम् । तत्सामान्यगुणादिककारणया तद्भवेत्साम्यम् ॥ -रुद्रट, काव्यालं. ८,१०५ २. सर्वाकारं यस्मिन्नुभयोरभिधातुमन्यथा साम्यम्। उपमेयोत्कर्षकरं कुर्वीत विशेषमन्यत्तत् ॥ वही, ८,१०७
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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