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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
सन्देह को वितर्क कहना भोज को अभीष्ट नहीं था, इसका एक सबल प्रमाण यह है कि 'सरस्वती - कण्ठाभरण' में संशयोक्ति नामक अलङ्कार का वितर्क से स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया गया है । भोज का संशयोक्ति अलङ्कार, जिसे उन्होंने उभयालङ्कार-वर्ग में परिगणित किया है, प्राचीन आचार्यों के सन्देह से अभिन्न है । हम यह देख चुके हैं कि 'सन्देह' के लिए 'ससन्देह', 'संशय', 'ससंशय ' आदि पर्यायों का प्रयोग होता रहा है । भोज ने उसके लिए संशयोक्ति शब्द का प्रयोग किया है । यदि वे वितर्क को सन्देह से अभिन्न मानते तो संशयोक्ति के स्वरूप - निरूपण की आवश्यकता ही नहीं रह जाती । स्पष्ट है कि सन्देह से किञ्चित् साम्य होने पर भी वितर्क का स्वतन्त्र अस्तित्व है । यह प्रमाण का सहकारी है । इससे तत्त्व-ज्ञान में सहायता मिलती है । वितर्क या पर्यालोचन से हम निर्णय पर पहुँचते हैं; किन्तु सन्देह से निर्णय में कोई सहायता नहीं मिलती । इसमें द्विकोटिक ज्ञान में से अयथार्थ ज्ञान के निरस्त हो जाने पर तत्त्व-ज्ञान शेष रह जाता है । वितर्क भी भ्रम, सन्देह आदि की तरह ज्ञान विषयक दार्शनिक चिन्तन का ही अवदान है । ऊहा या वितर्क के स्वरूप पर दर्शन के क्षेत्र में गम्भीर विचार हुआ है । साहित्य में उसकी अभिव्यक्ति को भोज ने अलङ्कार के रूप में स्वीकार किया है ।
मीलित
भोज के मीलित अलङ्कार का सामान्य स्वरूप रुद्रट के मीलित से मिलता-जुलता है । भोज ने मीलित में ही पिहित, अपिहित, तद्गुण तथा अतद्गुण अलङ्कारों का अन्तर्भाव माना है । यह देखा जा चुका है कि रुद्रट ने पिहित एवं तद्गुण अलङ्कारों का वास्तव वर्गगत मीलित से स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार किया था । वे इन्हें अतिशयमूलक अलङ्कार मानते थे । इन दो अलङ्कारों के अभावात्मक स्वरूप की कल्पना से अपिहित एवं अतद्गुण अलङ्कारों का आविर्भाव हुआ । भोज ने इनका स्वतन्त्र अस्तित्व अस्वीकार कर इन्हें मीलित में ही समाविष्ट कर दिया ।
स्मृति
स्मृति अलङ्कार की स्वरूप - कल्पना में भोज रुद्रट से सहमत हैं ।
१. वस्त्वन्तर तिरस्कारो वस्तुना मीलित स्मृतम् । पिहितापिहिते चैव तद्गुणातद्गुणौ च यत् ।।
- भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, १६२