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अलङ्कार-धारणा का विकास
१६५.
१६५ समाहित
समाहित अलङ्कार की धारणा भामह, दण्डी आदि प्राचीन आचार्यों की धारणा से अभिन्न है।
भ्रान्ति
भोज की भ्रान्ति का स्वरूप रुद्रट की भ्रान्ति से मिलता-जुलता है। भोज ने इस अलङ्कार के चार प्रकारों की कल्पना की है। वे हैं:-भ्रान्तिमाला, 'भ्रान्तिमान, भ्रान्त्यतिशय, भ्रान्त्यनध्यवसाय । भ्रान्ति की माला या परम्परा तथा उसकी अतिशयता के आधार पर भ्रान्तिमाला एवं भ्रान्त्यतिशय भेदों की कल्पना की गयी है। माला एवं अतिशय की धारणा नवीन नहीं है। भ्रान्तिमूलक ज्ञान के अन्य भेदों की कल्पना भी न्याय-शास्त्र आदि में हो चुकी थी। वस्तुतः भ्रान्ति या भ्रान्तिमान की अलङ्कार रूप में काव्यशास्त्र में अवतारणा दर्शन के क्षेत्र से ही हुई है।
वितर्क ___ डॉ० राघवन की मान्यता है कि प्राचीन आचार्यों के सन्देह अलङ्कार को भोजराज ने वितर्क नाम से अभिहित किया है। इसका स्वरूप प्राचीनों के सन्देह के स्वरूप से अभिन्न है ।' भोज ने ऊहा एवं वितर्क को पर्यायवाची स्वीकार किया है। जहाँ किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप के निर्णय में मन में वितर्क उठे वहाँ इस अलङ्कार की सत्ता मानी गयी है। इसका स्वरूप अंशतः सन्देह से अवश्य मिलता है, किन्तु इसे सन्देह से अपृथक् सिद्ध नहीं किया जा सकता । रत्नेश्वर ने वितर्क का सन्देह से यह भेद स्पष्ट किया है कि सन्देह में एक वस्तु में दो या दो से अधिक वस्तुओं का समकालिक ज्ञान रहता है, अर्थात् एक में अनेक वस्तुओं का विकल्प मन में उठता रहता है; किन्तु वितर्क में एक स्.मय एक कोटिक ज्ञान ही रहता है। दूसरे शब्दों में, सन्देह अनेक-कोटिक जिज्ञासा उत्पन्न करता है पर वितर्क एक-कोटिक । प्राचीनों के
१. डॉ० राघवन, Bhoja's Sr. Prakash, पृ० ३८७ २. सन्देहो नानाकोटिकस्तथाभूतामेव जिज्ञासां प्रसूते तर्कस्तु तदनन्तरभावी नियत कोटिकः तथाभूतामिति ।-सरस्वतीकण्ठाभरण, रत्नेश्वर की
टीका, पृ० ३६५