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________________ तृतीय अध्याय हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ और उनका स्रोत हिन्दी में अलङ्कार-शास्त्र की सुदीर्घ परम्परा पायी जाती है। हिन्दीसाहित्य के उस काल-खण्ड में, जिसे 'रीति काल' की संज्ञा से अभिहित किया गया है, अलङ्कार का विवेचन ही प्रधान है। काव्य के अन्य अङ्गों-रस, शब्द-शक्ति, रीति, गुण, दोष, आदि का भी विवेचन हिन्दी रीति-साहित्य में हआ है; किन्तु रीति-काल में काव्याङ्ग-विवेचन में प्रधानता अलङ्कारविवेचन की ही रही है। संस्कृत में भी अलङ्कार-रहित काव्य की कल्पना को शीतल अग्नि की-सी अनुचित कल्पना मानने वाले आचार्य हुए हैं।' हम यह देख चुके हैं कि संस्कृत-साहित्य-शास्त्र में अलङ्कार-प्रस्थान के समर्थक आचार्यों की एक सशक्त परम्परा रही है; किन्तु रस-ध्वनि-प्रस्थान की स्थापना के बाद अलङ्कार-प्रस्थान की लोकप्रियता क्षीण पड़ गयी। ध्वनिध्वंस-प्रस्थान के आचार्यों का प्रयास सफल नहीं हो सका। आनन्दवर्धन, मम्मट आदि आचार्यों की तर्कपुष्ट मान्यताएँ अकाट्य प्रमाणित हुई। जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि पिछले खेवे के आचार्यों ने अलङ्कार के श्रेय की स्थापना का फिर से प्रयास किया; पर सुरुचि-सम्पन्न पाठकों की दृष्टि में रस, ध्वनि आदि की अपेक्षा अलङ्कार को काव्य में गौण स्थान ही मिला। हिन्दी रीति-शास्त्र में अलङ्कार-विवेचन की प्रधानता का कारण स्पष्ट है। रीति-काल दरबारी साहित्य का काल था। राजाओं के दरबार में आयोजित काव्य-गोष्ठियों में उक्ति-चमत्कार से श्रोताओं को चमत्कृत एवं मुग्ध करना कवियों का प्रधान उद्देश्य रहता था। फलतः उस काल की कविता सुन्दर अलङ्कारों से अलङ कृत. १. अङ्गीकरोति यः काव्यं शब्दावनलङ कृती। असौ न मन्यते कस्मादनुष्णमनलं कृती॥-जयदेव, चन्द्रालोक, १,८
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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