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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ३०३ व्याजोक्ति की कल्पना का श्रेय वामन को; उल्लास, पूर्वरूप, प्रहर्षण एवं अवज्ञा की उद्भावना का श्रेय जयदेव को और रत्नावली की कल्पना का श्रेय अप्पय्य दीक्षित को है । पुनरुक्तवदाभास की उद्भावना उद्भट ने की थी। विचित्र रुय्यक की कल्पना है।
स्पष्ट है कि सभी समर्थ आलङ्कारिकों ने अलङ्कारों के नवीन-नवीन स्वरूप की कल्पना का प्रयास किया है। भरत के बाद भामह और दण्डी के काल तक जिन अलङ्कारों की कल्पना हुई, उनमें से अधिकांश का स्वरूप भरत के लक्षण, अलङ्कार, गुण आदि के तत्त्व से बना है । सम्भवतः उन्हीं अलङ्कारों को लक्ष्य कर अभिनव गुप्त के गुरु भट्ट तौत ने कहा था कि लक्षणों के योग से अलङ्कारों में वैचित्र्य आता है। अभिनव के बाद भी बहुत-से अलङ्कारों के स्वरूप, लक्षण, अलङ्कार आदि के तत्त्वों के योग से कल्पित हुए हैं।