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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ४४५. रुय्यक आदि की धारणा का ही अनुगमन रीति-आचार्यों ने किया। यह मान्यता भ्रान्तिपूर्ण है कि केशव ने 'रूपकरूपक' नाम में एक नये भेद का निर्देश किया है।' रूपकरूपक-भेद का सोदाहरण-निरूपण दण्डी ने किया था, जिसमें एक बार रूपित पदार्थ पर पुनः रूपण की धारणा व्यक्त की गयी थी।२ स्पष्टत: रीति-काल में परम्परानुमोदित रूपक-विभाग का ही निरूपण किया गया है। दीपक
उपमा और रूपक की तरह दीपक भी भारतीय अलङ्कार-शास्त्र में प्राप्त प्राचीनतम अर्थालङ्कारों में से एक है। आचार्य भरत से लेकर आधुनिक काल तक के प्रायः सभी आलङ्कारिकों ने दीपक का अलङ्कारत्व स्वीकार किया है। भामह और दण्डी ने तुल्ययोगिता अलङ्कार का स्वरूप दीपक से इतना मिला दिया कि पीछे चल कर जयरथ, पण्डितराज जगन्नाथ, आदि आचार्यों ने तुल्ययोगिता से पृथक् दीपक का सद्भाव मानना अनावश्यक बताया; पर ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि दीपक के स्वरूप के आधार पर ही उससे मिलते-जुलते स्वरूप वाले तुल्ययोगिता अलङ्कार के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना की गयी है । अतः, यह कल्पना अपने आधार के ही अस्तित्व का अपलाप नहीं कर सकती। यदि उक्त दोनों अलङ्कारों के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना आवश्यक न मानी जाय और दोनों के स्थान पर एक ही अलङ्कार के व्यापक स्वरूप की कल्पना लाघव के लिए उचित मानी जाय, तो भी दीपक के अस्तित्व को अस्वीकार करने का कोई आधार नहीं होगा। अस्तु, प्रस्तुत प्रसङ्ग में हम दीपक के स्वरूप-विकास का अध्ययन करेंगे। ____ आचार्य भरत ने दीपक का स्वरूप-निरूपण करते हुए कहा था कि इसमें वाना अधिकरण में रहने वाले शब्दों का एक ही वाक्य से संयोग होता है । एक वाक्य अनेक शब्दों का दीपन करता है, इसीलिए इस अलङ्कार का १. डॉ० ओमप्रकाश शर्मा, रीतिकालीन अलं० साहित्य का शास्त्रीय
विवेचन, पृ० २५४ २. दण्डी, काव्यादर्श, २, ६३ ३. नानाधिकरणार्थानां शब्दानां सम्प्रदीपकम् ।
एकवाक्येन संयुक्त तद्दीपकमिहोच्यते ॥-भरत, ना० शा० १६,५३.