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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
नहीं माना जा सकता । जहाँ अवान्तर रूप से किसी उदात्त चरित्र को उपलक्षण रूप में प्रस्तुत किया जाय, वहीं उदात्त माना जाना चाहिए; पर उद्भट की यह मान्यता कि प्रधानतया क्रमबद्ध चरित्र वर्णन में रसवत् अलङ्कार होगा उचित नहीं । हम देख चुके हैं कि उद्भट काव्य में रस-परिपाक को रसवृत् अलङ्कार मानते थे । अतः, उनके अनुसार उदात्त चरित्र वर्णन से निष्पन्न रस में रसवत् अलङ्कार होगा । हम उनकी रसवत् अलङ्कार-धारणा के क्रम में उनकी इस मान्यता की असमीचीनता प्रमाणित कर चुके हैं । अस्तु, उद्भट की उदात्त धारणा का निष्कर्ष यह है कि ( १ ) जहाँ समृद्धियुक्त वस्तु का वर्णन हो तथा (२) जहाँ महान व्यक्ति का चरित्र उपलक्षण (अङ्ग) के रूप में प्रस्तुत किया जाय, वहाँ उदात्त अलङ्कार होता है ।
रुद्रट ने उदात्त अलङ्कार का निरूपण नहीं कर उससे मिलते-जुलते स्वभाव वाले अवसर अलङ्कार का निरूपण किया है। उनके अनुसार किसी वस्तु की उत्कृष्टता के प्रतिपादन के लिए किसी उत्कृष्ट अथवा सरस (शृङ्गारादि रसयुक्त) वस्तु को उसका उपलक्षण बनाना अवसर अलङ्कार है । एक उदाहरण में वन की उत्कृष्टता के प्रतिपादन के लिए यह कहा गया है कि यह वही वन है, जहाँ उदात्तचेता राम ने निवास किया था । राम का उदात्त चरित्र उपलक्षण बन कर उस वन की उत्कृष्टता प्रतिपादित करता है । इसी प्रकार शिप्रा में सुन्दरी मालव तरुणियों के स्नान के सरस प्रसङ्ग को उपलक्षण बना कर शिप्रा का उत्कर्ष प्रतिपादित करने का उदाहरण दिया गया है । ' स्पष्ट है कि रुद्रट को भी अवसर में चरित्र तथा वस्तु की उदात्तता एवं सरसता का वर्णन अभीष्ट है; पर वे उस वर्णन से अन्य का उत्कर्ष - प्रतिपादन आवश्यक मानते हैं । यह कहा जा सकता है कि रुद्रट का अवसर उद्भट के उदात्त का ही कुछ परिवर्तित स्वरूप है । चारित्रिक औदात्य के उपलक्षण बनाये जाने की चर्चा उदात्त लक्षण में उद्भट ने भी की थी ।
कुन्तक ने भामह, उद्भट आदि के उदात्त के उक्त दोनों रूपों – समृद्धिमद्-वस्तु-वर्णन तथा उदात्त चरित्र वर्णन को अलङ्कार्य मानकर उदात्त के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है । २
मम्मट, रुय्यक, विश्वनाथ आदि ने उद्भट की उदात्त धारणा को ही
१. द्रष्टव्य — रुद्रट, काव्यालं ० ७,१०३-५
२. द्रष्टव्य – कुन्तक, वक्रोक्तिजीवित, पृ० ३७८-८०