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________________ ३० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण किन्तु उस प्रौढ़ नाट्य-शास्त्र तथा उसमें पूर्ववर्ती अनेक नाट्याचार्यो के नामोल्लेख से यह अनुमान किया जा सकता है कि भरत के काल तक संस्कृत नाटक-साहित्य का भाण्डार समृद्ध हो चुका था, जो दुर्भाग्य से लुप्त हो गया है । भास के अनेक नाटकों का शताब्दियों तक अप्राप्य रहना भी इस बात का एक प्रमाण है कि प्राचीन भारतीय साहित्य के बहुत से बहुमूल्य ग्रन्थ किसी कारण से विनष्ट हो गये हैं। विदेशियों का आक्रमण और भारतीय सांस्कृतिक-गरिमा के उन्मूलन का उनका प्रयास इस अपूरणीय क्षति का एक मुख्य कारण माना जा सकता है। अस्तु, इस विषयान्तरानुसन्धान का उद्देश्य इस अनुमान की पुष्टि करना है कि 'नाट्यशास्त्र' के निर्माण के समय भरत के सामने विशाल रूपक-साहित्य रहा होगा। यह अनुमान भी किया जा सकता है कि सम्प्रति अनुपलभ्य उन अज्ञात कलाकारों की कला-कृतियों की मुख्य प्रवृत्तियाँ रिक्थ के रूप में भास, कालिदास, भवभूति आदि परवर्ती नाटककारों को प्राप्त हुई होंगी। अतः इन उपलब्ध रचनाओं की प्रवृत्तियों के आधार पर पूर्ववर्ती लुप्त रचनाओं की प्रवृत्तियों का अनुमान किया जा सकता है। कालिदास और भवभूति के नाटकों में इतनी काव्यात्मकता है तथा उक्तियों में स्वाभाविक रूप से आये हुए अलङ्कारों की इतनी प्रचुरता है कि उन्हें चार अलङ्कारों में परिभाषित कर लेना सम्भव नहीं। काव्य अपने समग्र सौन्दर्य-संभार में नाटकों में वर्तमान है। कहीं-कहीं तो मुक्तक-काव्य के भी सुन्दर उदाहरण नाटकों के बीच मिल जाते हैं।' 'उत्तर “रामचरित' का वह स्थल, जिसमें राम की विरह-दशा का वर्णन हुआ है, नाटक के सन्दर्भ से विच्छिन्न हो जाने पर भी विरह के सुन्दर काव्य के रूप में अपना सौन्दर्य सुरक्षित रखेगा। अतः रामस्वामी शास्त्री शिरोमणि की यह युक्ति कि 'भरत ने रसप्रधान नाटक आदि अभिनेय काव्यों के अलङ्करण के लिए इन चार अलङ्कारों का उल्लेख किया है, श्रव्य काव्यों के लिए नहीं, २ भरत के अलङ्कारों की पर्याप्ति सिद्ध करने के लिए अलम् नहीं है। उनकी मान्यता है १. द्रष्टव्य-कालिदास, अभि० शाकु०-रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्....' तथा—यात्येकतोऽस्तशिखरं पतिरौषधीनाम् आदि) २. इमे च रसप्रधानस्य नाटकादेरभिनेयकाव्यस्यालङ्करणाय भरतेन निर्दिष्टाः । एतेन च न श्रव्यकाव्येष्वप्येतेषामेव चतुर्णामलङ्कारभावो भरताभिसंहित इति परिसंख्यातु पार्यते ।-के० एस० रामस्वामी शास्त्री, उद्भट काव्यालं० सार सं० की भूमिका, पृ० १७-१८ .(ओरियण्टल इन्स्टीच्यूट बरोदा १६३१)
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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