________________
अलङ्कार-धारणा का विकास
[ ३१
कि ये चार अलङ्कार रसाविरोधी हैं, अतएव दृश्य-काव्य के सन्दर्भ में भरत द्वारा उल्लिखित हैं।'
भरत की अलङ्कार-धारणा की यथेष्टता तथा औचित्य की परीक्षा के लिए उनकी लक्षण-धारणा का अध्ययन अपेक्षित है । 'नाटय-शास्त्र' में अलङ्कारों के संख्या-संकोच का दायित्व लक्षण-धारणा के विस्तार पर है । भरतोत्तर काल में लक्षण-धारणा का शनैः-शनैः लोप हो गया। कुछ लक्षण मूल अलङ्कारों से मिलकर नवीन अलङ्कारों के आविर्भाव के हेतु बने । कुछ लक्षणों के पारस्परिक मिश्रण से भी नवीन अलङ्कार आविर्भूत हुए। अभिनवगुप्त ने अपने गुरु भट्टतौत के मत का उल्लेख करते हुए कहा है कि वे भरत के परिमित अलङ्कारों में उनके लक्षण के योग से तथा कुछ लक्षणों के परस्पर मिल जाने से अलङ्कारप्रपञ्च की सृष्टि मानते थे। कुछ नवीन अलङ्कारों की उत्पत्ति के दृष्टान्त भी दिये गये हैं। उदाहरणार्थ-उपमा अलङ्कार के साथ गुणानुवाद नामक लक्षण के मिश्रण से प्रशंसोपमा अलङ्कार की उत्पत्ति हुई, उसी के साथ ( उपमा के साथ ) अतिशय-संज्ञक लक्षण के योग से अतिशयोक्ति अलङ्कार का आविर्भाव हुआ; मनोरथ लक्षण तथा उपमा के मिलन से अप्रस्तुतप्रशंसा का जन्म हुआ, मिथ्याध्यवसाय लक्षण और उपमा ने मिलकर अपह्नति को उत्पन्न किया तथा सिद्धि लक्षण एवं उपमा के संयोग से तुल्ययोगिता आविर्भूत हुई । लक्षणों के अन्योन्य योग से अलङ्कार की उत्पत्ति का उदाहरण आक्षेप अलङ्कार है, जिसका उत्पादन प्रतिषेध तथा मनोरथ लक्षणों के योग से हुआ है। उन्होंने निष्कर्ष-रूप में यह माना है कि सभी अलङ्कार उपमा के ही प्रपञ्च हैं। यह निष्कर्ष निर्धान्त नहीं है । ऐसे अनेक अलङ्कार हैं, जिनका मूल उपमा में हूँढ़ना सम्भव नहीं। उदाहरणतः-स्वभावोक्ति, भाविक, उदात्त, प्रेय, यथासंख्य आदि अलङ्कारों को उपमा-मूलक मानने का कोई आधार नहीं । हाँ, यह ठीक
१. 'अत एव रसाविरोधिनां कतिपयानामेवालङ्काराणां भरतशास्त्र
निर्देशः ।'—वही पृ० १८ । २. 'उपाध्यायमतं तु-लक्षणबलादलङ्काराणां वैचित्र्यमागच्छति तथा हि गुणानुवादनाम्ना लक्षणेन योगात् प्रशंसोपमा, अतिशयनाम्नातिशयोक्तिः; मनोरथाख्येनाप्रस्तुतप्रशंसा, मिथ्याध्यवसायेनापह नुतिः सिद्धया तुल्ययोगितेति, ‘एवमन्यदुत्प्रेक्ष्यम् । लक्षणानां च परस्परवैचित्र्यादप्यनन्तो विचित्रभावः, यथा प्रतिषेधमनोरथयोः संमेलनादाक्षेप इति । उपमा-प्रपञ्चश्च सर्वोऽलंकार इति विद्वद्भिः प्रतिपन्नमेव ।
-अभिनव-ना-शा० अ० भा० पृ० ३२१