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अलङ्कारों का वर्गीकरण
हिन्दी - रीति- आचार्यों का वर्गीकरण
हिन्दी - अलङ्कार - साहित्य में भी संस्कृत-साहित्य की पद्धति पर अलङ्कारों का शब्द, अर्थ के आधार पर वर्गीकरण कर पुन: अर्थालङ्कारों का मूल तत्त्वों के आधार पर वर्गीकरण किया गया है । कुवलयानन्दकार की तरह हिन्दी के मतिराम, रघुनाथ गोविन्द, रत्नेश आदि आचार्यों ने केवल अर्थालङ्कारों का ही निरूपण किया है । अतः उन आचार्यों के अलङ्कारों के लिए आश्रय के आधार पर वर्गीकरण की समस्या नहीं । हिन्दी में शब्द चित्र को, जो वस्तुतः शब्दालङ्कार है, स्वतन्त्र अस्तित्व प्राप्त हो गया है । बलवान सिंह तथा ईश्वर कवि ने केवल चित्रालङ्कार पर स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं । अतः, हिन्दी के अलङ्कारों का वर्गीकरण करने के क्रम में शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार, उभयालङ्कार आदि के साथ चित्रालङ्कार का स्वतन्त्र वर्ग भी स्वीकार किया जाना चाहिए । चित्र की धारणा का विकास यद्यपि यमक, अनुप्रास आदि शब्दा-लङ्कारों से ही हुआ है; पर उसने अपना विशिष्ट स्थान बना लिया है । केवल अलङ्कार के रूप में ही नहीं, चित्र काव्य के एक स्वतन्त्र प्रकार के रूप में - अधम काव्यरूप में ही सही - चित्रकाव्य का अस्तित्व स्वीकृत हुआ है | चित्रालङ्कार चित्र काव्य का ही अङ्ग विशेष है । उसके इतने स्वरूपों की कल्पना की गयी है कि शब्दालङ्कार से स्वतन्त्र चित्रालङ्कार वर्ग में उन चित्र - रूपों का अध्ययन अपेक्षित है ।
हम यहाँ रीतिकालीन आचार्यों के अलङ्कार - वर्गीकरण के प्रयास का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत करेंगे । रीतिकालीन हिन्दी - अलङ्कार - शास्त्र में केशव और भिखारी दास ने अलङ्कार वर्गीकरण का प्रयास किया है ।
आचार्य केशव-कृत वर्गीकरण
केशवदास ने अलङ्कार के मुख्य दो विभाग माने हैं - ( १ ) साधारण और (२) विशिष्ट । साधारण अलङ्कार के चार भेद माने गये हैं:
(क) वर्णालङ्कार,
(ख) वर्ष्यालङ्कार,
(ग) भूमिश्री वर्णन और
(घ) राज्यश्री वर्णन ।
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१. द्रष्टव्य – केशव, कविप्रिया, ५, २-३